वीर सावरकर
कांग्रेस की छात्र विंग एनएसयूआई के कार्यकर्ता दिल्ली विश्वविद्यालय में जाकर वीर सावरकर की प्रतिमा पर कालिख पोत रहे हैं लेकिन कोई कुछ नहीं बोल रहा। वह सावरकर, जिन्हें दोहरे आजीवन कारावास की सजा हुई, पर कांग्रेस उन्हें वीर नहीं मानती। उनके खिलाफ सुनियोजित तरीके से षड्यंत्र कर उनके विचारों को सांप्रदायिक बताया जाता है हमें सावरकर के कार्यों और उनके आदर्शों को छत्रपति शिवाजी और चाणक्य की कार्यविधियों से तोलना होगा, न कि गांधी जी के साथ। सावरकर के खिलाफ वामपंथियों और इस्लामी ताकतों ने दुष्प्रचार किया है और अभी भी कर रहे हैं। अपने 37 वर्ष के लंबे कार्यकाल में, जिस दौरान उन्होंने भारत की नियति को बदला और हिंदवी स्वराज की नींव रखी, छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब को चार माफीनामे भेजे थे। इनमें से तीन माफीनामे उनके और मुगलों के बीच लिखित संधियों के बाद के थे। लेकिन इन सभी संधियों को स्वयं शिवाजी ने तोड़ा था, क्योंकि यह उनकी स्वतंत्र हिंदू राज्य स्थापित करने और सबको समान अधिकार देने की दीर्घकालिक नीति का हिस्सा था। विनायक दामोदर सावरकर शिवाजी के अनुयायी थे। वे गांधी जी के विशुद्ध अहिंसा के सिद्धांत में विश्वास नहीं रखते थे। जैसे शिवाजी 1666 में आगरा से मिठाइयों के टोकरे में छुपकर मुगल कैद से फरार हुए थे, उसी से प्रेरणा लेकर सावरकर ने भी 1910 में मोरिया नामक एक स्टीमर से पलायन किया था, जिस पर उन्हें लंदन में ब्रिटिश विरोधी गतिविधियों को बढ़ावा देने और मदन लाल ढींगरा द्वारा ब्रिटिश अफसर की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में ले जाया जा रहा था। उन्हें 60 वर्ष की कड़ी सजा मिली थी। जैसे ही स्टीमर मार्से के फ्रांसीसी तट के निकट पहुंचा, सावरकर ने उस पर मौजूद एक छिद्र में से निकल कर समुद्र में छलांग लगा दी और तैर कर किनारे पहुंचे। वहां मौजूद फ्रांसीसी अधिकारियों ने सोचा कि वे ब्रिटिश बंधक हैं, इसलिए उन्हें पकड़ कर स्टीमर के किनारे पहुंचते ही ब्रिटिश अधिकारियों के हवाले कर दिया। इसलिए जब हम सावरकर की माफी का आकलन करते हैं, तब हमें सही नतीजे पर पहुंचने के लिए शिवाजी की युक्तियों के बारे में सोचना पड़ता है, न कि गांधीवादी नीतियों पर। और ऐसा करने पर हमें पता चलता है कि उनका माफीनामा खुद को जेल से बाहर रखने की नीति से जुड़ा था, ताकि वे अपनी राष्ट्रीय-दृष्टि को आगे ले जा सकें। इस जोरदार और तार्किक दलील की बुनियाद अपने आप में बहुत पुख्ता है। 1913 में एक वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी रेगिनल्ड क्रेडक सेल्युलर जेल में कैदियों द्वारा विरोध प्रदर्शन के बाद वहां की हालत देखने आए और जाते हुए जेल कर्मचारी को गोपनीय हिदायत देकर गए। उन्होंने कहा अन्य कुछ कैदियों की तरह सावरकर को जेल से बाहर समुद्र किनारे टहलने की इजाजत न दी जाए, क्योंकि यदि ऐसा होता है तो पहला मौका मिलते ही सावरकर वहां से फरार हो जाएंगे। क्रेडक ने कहा कि संभव है सावरकर को वहां से निकालने के लिए उनके कुछ साथी समुद्री जहाज भी लेकर आ सकते हैं। यह प्रकरण बताता है कि अंग्रेज सरकार क्रांतिकारी सावरकर से कितनी खौफजदा थी। वामपंथियों और छद्मवादियों ने सावरकर को बदनाम करने की एक और चाल चली। उन्होंने भगत सिंह को वामपंथी विचारधारा वाले व्यक्ति के तौर पर सामने रखा और कहा कि कैसे वे खुशी-खुशी फांसी चढ़ गए थे। इसके विपरीत, कैसे सावरकर ने अपनी रिहाई के लिए अंग्रेजों से माफी मांगी थी। सच यह है कि भगत सिंह का समूचा परिवार स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज आंदोलन से प्रभावित रहा था। भगत सिंह ने लाहौर में दयानंद सरस्वती विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की थी। एक प्रदर्शन के दौरान जब ब्रिटिश लाठियों के हमलों से लाला लाजपत राय की मौत हुई, तब भगत सिंह ने अंग्रेजों से बदला लेने की सौगंध ली थी। लाला लाजपत राय भी आर्य समाज के अनुयायी थे। वहीं, भगत सिंह के कई साथी भी आर्य समाज से जुड़े हुए थे। अगर वामपंथी यह दावा करते हैं कि भगत सिंह ने एक कम्युनिस्ट पुस्तक का गुरमुखी में अनुवाद किया था, तो इस बात के भी प्रमाण हैं कि उन्होंने सावरकर के ग्रंथ "माई ट्रांसपोर्टेशन फॉर लाइफ" का भी अनुवाद किया था। इस पुस्तक में सावरकर के कठोर कारागार के दिनों की दास्तान है। भगत सिंह द्वारा लिखी पुस्तक "मैं नास्तिक क्यों हूं" एक वामपंथी इतिहासकार द्वारा लिखी गई है, जिसमें विचारधारा को आधार बनाते हुए तथ्यों से खिलवाड़ किया गया है। इसलिए कई लोगों का मानना है कि यह वामपंथी चाल है, क्योंकि पुस्तक भगत सिंह के फांसी चढ़ने के फौरन नहीं, कुछ वर्षों के बाद आई थी।
वीर सावरकर:2
सावरकर के जीवनी लेखक धनंजय कीर ने "वीर सावरकर" में लिखा है कि अपने क्रांतिकारी कार्य को अंजाम देने से पहले भगत सिंह सावरकर से मिलने के लिए रत्नागिरि गए थे और संभवत: वह सावरकर के विचारों से प्रेरित भी थे। समय के साथ-साथ मुस्लिम तुष्टिकरण करने वाले राजनीतिक दल और अन्य विघटनकारी ताकतें देश की ऊर्जा को समाप्त करने को आमादा हो गए, उसे देखते हुए भारतवर्ष के अस्तित्व की रक्षा के लिए किसी तरह के तुष्टिकरण से इनकार करने वाले सावरकर के विशुद्ध राष्ट्रवाद का महत्व और बढ़ जाता है। ऐसा इसलिए कि यदि हम भारत के पिछले 120 वर्ष के इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि राजनीतिक अखाड़े में मुस्लिम रणनीतिकारों ने अलग-अलग बहाने से लगभग सभी हिंदू नेताओं से जब-तब बेहिसाब और गैरवाजिब छूट प्राप्त की है। नेताओं की इस सूची से बाहर केवल वीर दामोदर सावरकर ही नजर आते हैं जो मुस्लिम नेताओं की बातों में नहीं आए। यह तमाम छूट हिंदू हितों की तिलांजलि देकर और मुस्लिमों के बीच बंटवारे के बीज बोकर प्राप्त की गई। और जो नेता इस चतुर मुस्लिम नीति का शिकार हुए उन्होंने न्याय और निष्पक्षता को ताक पर रख कर मुस्लिम समुदाय के लिए तमाम चुनावी रियायतें उपलब्ध कराईं। इन नेताओं में कट्टर राष्ट्रवादी नेता लोकमान्य तिलक भी शामिल थे। 1916 के लखनऊ समझौते के आधार पर तिलक द्वारा मुस्लिमों के लिए प्राप्त की गई छूट, मुस्लिमों के चुने गए नुमाइंदों की संख्या के अनुपात में कहीं ज्यादा थी। ऐसा लगता है कि मुस्लिम नेतृत्व तिलक जैसे मजबूत नेताओं से भी जैसे चाहे अपनी बात मनवा सकता था। बेशक गांधीजी ने तिलक की अपेक्षा मुस्लिम तुष्टीकरण को कहीं ज्यादा प्रश्रय दिया था। इसके पीछे की भ्रामक धारणा यह थी कि हिंदू-मुस्लिम एकता के बिना भारत की स्वतंत्रता या तो संभव नहीं या अर्थहीन है। यही कारण है कि उग्र इस्लामिक और वहाबी तंजीमों ने हमेशा सावरकर और उनकी विचारधारा को नीचा दिखाने की कोशिश की है। उन्हें अच्छी तरह पता है कि आज हिंदुओं द्वारा अभ्यास में लाया जाने वाला राष्ट्रवाद सोडा बोतल जैसा है। किसी आतंकी हमले या टेलीविजन पर हमारे सैनिकों के शवों को दिखाए जाने पर यह उफान मारता है और ऐसी हरेक घटना के कुछ देर बाद शांत हो जाता है। इसके विपरीत, यदि सावरकर के विशुद्ध राष्ट्रवाद को हिंदुओं में फैला दिया जाए तो बहुसंख्यक समुदाय को विभाजित करने वाली या अपने उद्देश्यों की खातिर राष्ट्रवाद को कमजोर करने वाली ताकतों के पैरोकारों का काम करना लगभग असंभव हो जाएगा। इसीलिए जब भी सावरकर का नाम सामने आता है, ये कूटनीतिकार एकजुट होकर उनकी छवि दागदार करने के लिए पूरे जोर से हमला बोल देते हैं।किसी भी सशक्त विचार में महान शक्ति समाहित होती है। गौतम बुद्ध के निर्वाण के 250 वर्ष बाद कोई भी उनके या उनकी विचारधारा के बारे में नहीं जानता था। ऐसे में सम्राट अशोक ने बौद्ध मत अपनाया और उसे मत प्रचारकों के जरिए भारत की सीमाओं के बाहर फैलाया। और आज बौद्ध मत, जो सावरकर के अनुसार कभी हिंदू धर्म का ही हिस्सा था, विश्व का तीसरा सबसे बड़ा मत बन चुका है।इसी तरह, सावरकर का विशुद्ध राष्ट्रवाद भी कई दशकों से हाशिए पर पड़ा रहा है। लेकिन अब उसके सामने आने का समय आ चुका है, क्योंकि देश विरोधी ताकतें कई रूपों में अपने सिर उठा रही हैं।
नियति
*एक विधवा औरत.. उसका एक मंदबुद्धि बेटा, एक मंदबुद्धि बेटी और एक हैरान परेशान भ्रष्टाचारी दामाद*.. *किसी समय तूती बोलती थी औरत की.. लेकिन काम गलत कर रही थी... जिस देश ने उसको मान सम्मान दिया.. इतना ताकतवर बनाया.. उसी देश और उन्हीं लोगों के खिलाफ उसने साज़िशें रची.. देश को गर्त में डाला.. देश की मासूम जनता को आतंकियों से मरवाया.. खूब भ्रष्टाचार किया.. बेरहमी से देश का खज़ाना लूटा.. देश के स्वाभिमान को तार तार करके रख दिया*.. *लेकिन कहते हैं न ऊपर वाले की लाठी में आवाज़ नहीं होती है.. वो बड़े से बड़े अत्याचारी अहंकारी को समय के साथ धूल चटा देता है... आज उसी दौर से कभी देश की करोड़ों जनता का भाग्य विधाता रहा ये परिवार आज उस मानसिक तनाव और तकलीफों से गुज़र रहा है जिसकी कभी उसने कल्पना भी नहीं की थी*.. *इस परिवार के बनाये गए सिस्टम और चक्रव्यूह को एक अकेला भेदने निकला था.. और उसने काफी हद तक भेद भी दिया है और इसी कारण से आज ये परिवार परेशान है.. शायद यही वजह थी कि पहली बार कल के स्वतंत्रता दिवस समारोह में इस परिवार का कोई भी व्यक्ति शामिल नहीं हुआ*.. *क्योंकि इनको उस आदमी को पूरे समय देखना और सुनना पड़ता जिसने इनका जीना मुहाल कर रखा है.. जिससे ये परिवार सबसे ज़्यादा नफ़रत करता है.. जिसको इन्होंने भी तब खूब परेशान किया था जब सत्ता का हर सूत्र इनके हाथ में था और सत्ता के दुरुपयोग को ये अपना अधिकार समझते थे.. लेकिन तब भी ये उसका कुछ नहीं बिगाड़ सके थे लेकिन पिछले 5 सालों में ही उसने उनके इस तिलिस्म को तोड़ना शुरू करके उनमें घबराहट तो पैदा कर ही दी है*.. *माँ को लगा कि बेटे को कमान सौंपकर और दुबारा राजपाट हासिल कर हम फिर से मौज करने लगेंगे.. इसके लिए भी साम दाम दंड भेद हर नीति को अपनाया गया.. उसकी साफ सुथरी उजली छवि पर खूब कीचड़ उछाले.. झूठे आरोप लगाए.. बेटा दिन रात.. सुबह शाम गंद फैलाता रहा.. इस बार देश की जनता ने भी इस परिवार के दंभ को चकनाचूर करके रख दिया और उनकी पहले से भी ज़्यादा दुर्गति करके रख दी*.. *बेटा बेटी मिलकर कुछ नहीं कर पा रहे थे.. बेटे ने घबराकर कहा मुझे नहीं चाहिए पार्टी की कमान तो इस परिवार के गुलामों ने फिर से उसी औरत को अपना मालिक बनाया और तलवे चाटने की प्रथा को जारी रखा.. दामाद ने अपनी सास के दौर में जो घोटाले किये थे दामाद उसी कारण रोज़ जाँच एजेंसियों के चक्कर लगा रहा है और बेटी ऊलजलूल बयान देकर उसी के लिए मुसीबतें खड़ी करती जा रही है*.. *नियति का खेल देखिये.. चायवाले के यहाँ विश्व का सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री पैदा हुआ और प्रधानमंत्रियों के घर में चाय तक न बेच पाने काबिल नालायक लड़का पैदा हुआ*.. *नियति हिसाब करने पर आमादा है.. और परिवार भी समझ ले कि अब सत्ता उसके लिए दिवास्वप्न से ज़्यादा कुछ नहीं है और इस देश, हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ रची गई साज़िशों की सज़ा उसे भुगतनी ही पड़ेगी*
कश्मीर :राजनीति
आज एक छोटा सा लेख.........….... जो पार्टियाँ कश्मीर में 370 हटने के बाद अशान्ति की कामना कर रही हैं वो ख़ुद अपनी राजनीतिक सँभावनाओं को आग लगा रही हैं। कश्मीर के लिए जहाँ आज की सरकार की नीति को जनता का समर्थन मिल रहा है वहीं पूर्ववर्ती सरकारों को भी कश्मीर में भारत के प्रभुत्व को स्थापित करने की हर कोशिश को समर्थन मिलता रहा है। देश जानता है कि कश्मीर के भारत में विलय के बाद लगभग चार दशक तक लगभग शान्ति रही, इसका कारण है फैसले लेने वाली सरकार होना। 1989 के बाद अस्थाई सरकारों के दौर ने अपनी अक्षमताओं के कारण कश्मीर समस्या को बढ़ावा दिया। आज फिर देश में एक स्थाई एवं फैसले लेने वाली सरकार है और लोगों की भावनाओं के अनुरूप इस विषय पर काम कर रही है ऐसे में जो लोग विरोध कर रहे हैं वो देश की आँखों में किरकिरी बन रहे हैं। देश का मत न समझने वाले लोग न सिर्फ अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं बल्कि अपनी पार्टी के सुलझे हुए नेताओं को उलझन में डाल रहे हैं, ऐसे में दल बदल ही उनके पास एक रास्ता है क्योंकि अकेला चलो की क्षमता न किसी में बची है न स्वीकार्यता है। सीरत बदलिए सूरत बदलने से कुछ नहीं होगा। जय हिंद
climate change
Climate Justice Climate justice focuses our attention on people, rather than ice-caps and greenhouse gases. No world leader should have to plan for evacuation from the land of their ancestors. The world is unprepared for a situation where adaptation fails & people are displaced due to climate. • Climate Justice is a moral argument in two parts. Firstly it compels us to understand the challenges faced by those people and communities most vulnerable to the impacts of climate change. Often the people on the front lines of climate change have contributed least to the causes of the climate crisis. • Climate justice also informs how we should act to combat climate change. We must ensure that the transition to a zero carbon economy is just and that it enables all people to realise their right to development. Principles of Climate Justice: o Respect and Protect Human Rights o Support the Right to Development o Share Benefits and Burdens Equitably o Ensure that Decisions on Climate Change are Participatory, Transparent and Accountable o Highlight Gender Equality and Equity o Harness the Transformative Power of Education for Climate Stewardship o Use Effective Partnerships to Secure Climate Justice