"मदीना को लिखे गए ख़त"
हर जुमे की सुबह एक बूढ़ा आदमी अपने दिल के टुकड़े काग़ज़ पर रख देता था — मदीना के नाम।" ‘मदीना को लिखे गए ख़त’ एक रूहानी, मोहब्बत-भरी कहानी है, जो इबादत और इंतज़ार के धागों से बुनी गई है। गुलज़ार की नज़्मों की तरह नरम, और दिल को छू लेने वाली इस कहानी में, एक पोती अपने दादा के उन ख़ामोश ख़तों को पढ़ती है, जो मदीना को नहीं, बल्कि अल्लाह से की गई एक धीमी, टूटती बातचीत होते हैं। यह कहानी है उन अल्फ़ाज़ों की जो कभी भेजे नहीं जाते, उन दुआओं की जो जवाब नहीं मांगतीं—बस यकीन रखती हैं।
गांव और इंसाफ़
यह कहानी पंडित रामलाल और उनकी पत्नी सीता देवी की है, जो एक ऐसे गाँव में रहते हैं जहाँ हिंदू और मुस्लिम समुदाय सदियों से शांति और सौहार्द से रह रहे थे। एक दिन, देश के किसी दूसरे हिस्से में हुए एक आतंकवादी हमले के बाद, गाँव का माहौल बिगड़ जाता है। कुछ कट्टरपंथी ग्रामीण गुस्से में आकर गाँव के मुस्लिम परिवारों को धमकाने लगते हैं और उन्हें अपने घर खाली करने का आदेश देते हैं, उन पर आतंकवादी होने का आरोप लगाते हैं। गाँव के मुस्लिम परिवारों में से एक, सलमा बेगम और उनके परिवार को विशेष रूप से निशाना बनाया जाता है। जब भीड़ उन्हें उनके घर से निकालने की कोशिश करती है, तो पंडित रामलाल और सीता देवी उनके बचाव में आगे आते हैं। पंडित रामलाल भीड़ से सवाल करते हैं कि क्या किसी एक व्यक्ति के गलत काम के लिए पूरे समुदाय को दोषी ठहराना सही है। वह तर्क देते हैं कि अगर ऐसा होता है, तो हिंदुओं द्वारा किए गए बुरे कामों के लिए पूरे हिंदू समुदाय को भी दोषी ठहराया जाना चाहिए। उनकी पत्नी, सीता देवी, भी अपनी बात रखती हैं और सलमा बेगम के गाँव के प्रति योगदान और मदद को याद दिलाती हैं। वे दोनों स्पष्ट करते हैं कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता; आतंकवादी सिर्फ़ मानवता के दुश्मन होते हैं। वे गाँव वालों को समझाते हैं कि उन्हें आपस में नफ़रत फैलाने के बजाय ऐसे बुरे लोगों का मिलकर विरोध करना चाहिए। पंडित रामलाल और सीता देवी की बुद्धिमान और दृढ़ बातों का गाँव के लोगों पर गहरा असर होता है। उन्हें अपनी गलती का एहसास होता है और भीड़ शांत हो जाती है। इस घटना से गाँव वालों को यह महत्वपूर्ण सबक मिलता है कि किसी एक व्यक्ति के कृत्य के लिए पूरे समुदाय को दोषी ठहराना अन्याय है और धर्म के नाम पर नफ़रत फैलाना गलत है। यह कहानी सच्ची इंसानियत, समझदारी और मुश्किल समय में एक-दूसरे का साथ देने के महत्व को दर्शाती है।
हिजाब वाली लड़की
कहानी का विस्तृत सारांश यह कहानी आयशा नाम की एक युवा मुस्लिम छात्रा के बारे में है जो मुंबई के एक आधुनिक कॉलेज में हिजाब पहनकर आती है, लेकिन उसे अपने पहनावे के कारण सहपाठियों के उपहास और पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ता है। शुरुआत में आयशा इन टिप्पणियों को नज़रअंदाज़ करती है, लेकिन एक दिन कैंटीन में कुछ छात्रों द्वारा उसके हिजाब और उसकी बौद्धिक क्षमता को लेकर की गई आपत्तिजनक टिप्पणी उसे बोलने पर मजबूर कर देती है। आयशा बड़े ही शांत और दृढ़ स्वर में उन छात्रों को चुनौती देती है। वह सवाल करती है कि क्या हिजाब पहनने से "न्यूरॉन्स" काम करना बंद कर देते हैं और क्या विज्ञान में ऐसा कोई प्रमाण है जो यह बताता हो कि कपड़ों का एक टुकड़ा सोचने की क्षमता को प्रभावित करता है। वह स्पष्ट करती है कि हिजाब उसकी आस्था का प्रतीक है और इसे पहनकर वह सुरक्षित और सहज महसूस करती है। आयशा के सवाल केवल उसके व्यक्तिगत अनुभव तक ही सीमित नहीं रहते, बल्कि वे समाज के सामने व्यापक प्रश्न उठाते हैं। वह पूछती है कि यदि एक महिला अपने चुने हुए परिधान में सहज महसूस करती है तो दूसरों को इसमें क्या समस्या होनी चाहिए। वह आज़ादी के सही अर्थ पर प्रकाश डालती है, जो न केवल अपनी पसंद को व्यक्त करने की स्वतंत्रता है, बल्कि दूसरों की पसंद का सम्मान करने की भी। वह इस बात पर जोर देती है कि लोगों को उनके कपड़ों के आधार पर नहीं, बल्कि उनके विचारों और गुणों के आधार पर आंका जाना चाहिए। आयशा के सवालों से कॉलेज के छात्र शर्मिंदा होते हैं और उसके प्रति उनका नज़रिया बदलता है। कुछ छात्र उससे माफ़ी भी माँगते हैं। आयशा का यह कार्य न केवल उसके आत्मविश्वास को दर्शाता है बल्कि यह भी साबित करता है कि अज्ञानता और पूर्वाग्रह को समझ और सम्मान से ही हराया जा सकता है। कहानी इस बात पर ज़ोर देती है कि आयशा एक मेधावी छात्रा थी और हिजाब उसकी बौद्धिक क्षमता या पहचान के आड़े कभी नहीं आया।
सब कुछ है इसमें ...................
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भगवद गीता अर मर्डन साइन्स॥Bhagawat geeta vs morden science
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