क्या तुम्हें स्वीकार है?

उन स्त्रियों की आवाज़ जो अब भी पितृसत्ता से व्यथित हो दुख झेल रही हैं

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 24 Feb, 2021 | 1 min read
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घर से निकलते ही खुद को समेटती

कभी दुपट्टा तो कभी कुर्ते को जाँचती

अनजाने स्पर्श से डरती हुई

तो कभी घूरती निगाहों से भागती

थोड़ा अधिक सौष्ठव शरीर तुम्हें मिला

उस भय से यदि स्त्री को बंदिशों में रहना स्वीकार है

तो हे पुरुष! तुम्हें धिक्कार है!

आईने में देख अगर थोड़ा ज्यादा सज जाती

कारण चाहिए तुम्हें, वो गुनाहगार कहलाती

होंठो की लाली का रंग चुनते हुए

या ब्लॉउज के गले की गहराई नाप सिहर जाती

शब्दों की कैची से इज्ज़त की पैहरन को

तुम्हारा समाज तार-तार करने को जो हर पल तैयार है

तो हे पुरुष! तुम्हें धिक्कार है!

वो माथे में सिंदूर तुम्हारे नाम का लगाती

तुम्हारे नाम की मेहंदी अपने हाथों में सजाती

नख से सिर तक बनाए गए कायदे उसके लिए

फ़ायदा उसका क्या है, वह समझ ना पाती

फ़िर भी औरत को संपत्ति समझना नहीं छोड़ते तुम

जो पग पग पर रेखा खिंचते

उसके मूलभूत अधिकारों पर वो प्रहार है

समझो हे पुरुष! तुम्हें धिक्कार है!

सृष्टि की सरंचना में बराबर की अधिकारी

कुछ सोच कर बनाया प्रभु ने नर और नारी

ममता दया गुण तनिक ज्यादा क्या पा गई

हो गई आश्रित और जिम्मेदारी तुम्हारी?

क्यों चाहिए तुम्हें वो कदमों के नीचे जब

कन्धा से कन्धा मिला कर चलने को तैयार है?

सोचो! वर्ना हे पुरुष! तुम्हें धिक्कार है!

वक़्त है संभल जाएं वो वासना के दानव

स्त्री को जो समझते नहीं है मानव

सती जब शिव बन जाएगी

तो होगा मृत्यु का महा तांडव

वो जो स्त्री को सिर्फ भोग्या समझते है

भटके नहीं बीमार है

अति बढ़ेगी तो स्त्री भी छोड़ रूप लक्ष्मी या अन्नपूर्णा का

दुर्गा महाकाली बनने को भी तैयार है

फ़िर निश्चय ही, हे पुरुष कहलाने वाले तुम्हें धिक्कार है!


अरे स्त्री जननी है, सह रचयिता है

उसने अपने बल पर जग भी जीता है

साथ चाहती सिर्फ साथ तुम्हारा

प्रेम और सम्मान चाहती वो वनिता है

जीवन रूपी गाड़ी की पहिया बन कर

चलती वो साथ तुम्हारे तब चलता ये संसार है

सुनो हे पुरुष! स्त्री भी जीने की हकदार है! 


-सुषमा तिवारी

(कृपया भाव को समझे और शाब्दिक अर्थ को अन्यथा ना ले,)

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