उम्मीद की धुन

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 12 Aug, 2019 | 1 min read

प्रसिद्ध बांसुरी वादक हुआ करते थे कभी कान्हा के दादाजी। फिर अचानक माता पिता की मृत्यु के बाद कान्हा की जिम्मेदारी दादाजी पर आ गई और साथ ही बांसुरी वादन भी अब सिर्फ मथुरा की गालियों में घूम कर बच्चों का मनोरंजन बन कर रह गया था। कान्हा को उनकी बाँसुरी की धुन पर थिरकना पसंद था और वो बड़ा होकर दादाजी जैसा बनना चाहता था, ये सोच कर दादाजी ने बाँसुरी बजाना नहीं छोड़ा नहीं पर आज जब दिमागी बुखार ने कान्हा को दिव्यांग बना दिया तो दादाजी अंदर से टूट चुके हैं, "किसके लिए बजाऊं?" भगवान इतना क्रूर कैसे हो सकता है। डॉक्टर कहते हैं अब ये सुन समझ नहीं सकता है पर.. तभी उनके कानो मे आवाज़ आई "बाsबाss", कान्हा मुस्करा कर उनकी तरफ देख रहा था। दादाजी को जैसे एक नई उम्मीद मिल गई, आँखों में उम्मीद के आंसू लिए वो फिर एक बार बाँसुरी बजाने लगे, सिर्फ और सिर्फ अपने कान्हा के लिए।

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