परदेसी

हम खुद ही जिम्मेदार हैं देसी से परदेसी बनने के लिए |

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Surabhi sharma
Surabhi sharma 14 Sep, 2022 | 1 min read

चिट्ठी आयी है आयी है, चिट्ठी आयी है 

बड़े दिनों के बाद हम बेवतनो को याद

वतन की मिट्टी आयी है |


(फिल्म - नाम)


अति व्यस्त और आज के ज़माने का होने के बावजूद अमित दिन भर में एक से दो बार ये गाना सुन अपनी आँखों की गीली कोरों को पोछने का वक्त निकाल ही लेता था |


वो लहलहाते खेत, धान की बालियाँ, खेतों में दुशाला ओढ़े राजकुमारी वाली शान से खड़ी मकई, ढीठ खड़ा गन्ना, छिलकों तक में मिठास भरी हुई मटर सबका स्वाद आज भी उसकी जुबान पर ज्यों का त्यों धरा था |


चाची, ताई, चाचा सबके ठहाके आज भी गूँजते हैं कानों में |


और अचानक पैसों की चमक - दमक ने जिन्दगी की असल खुशियों को नजर लगा दी |


गांव के विवेक भैया शहर गए थे पढ़ने को पढ़ाई पूरी होने के बाद फिर वहीं नौकरी भी लग गयी और फिर धीरे - धीरे उनके घर की टपकती छत और कच्ची मिट्टी के आँगन संगमरमर की चमकीली फर्श के रूप में तब्दील होते गए |घड़े की जगह फ्रिज का पानी बड़ा रंगीन टीवी, सिल-बट्टे की जगह लेता हुआ मिक्सी चमकते हुए सोफा सेट घर के द्वार पर दो - दो चार चक्का, बाइक सब कुछ ने अपना आधिपत्य कुछ यूँ जमाया की लोग - बाग इस रोआब के आगे नतमस्तक हो उठे और सब अपने घर में ऐसे ही स्वर्ग की कल्पना करने लगे | विवेक भैया के लिए मोटी रकम वाले पढ़ी - लिखी एक से एक सुन्दर लड़कियों के रिश्ते भी आने लगे |


और इसी स्वर्ग की चाहत का भार उठाए अमित भी मुंबई के एक हास्टल में डाल दिया गया पढ़ने के लिए |बहुत रोया था अपने आँगन में लगे हुए नीम के पेड़ से लिपटकर पर किसी ने भी उसकी न सुनी |मुंबई तो ऐसे ही मायानगरी ठहरी फिर यहीं की माया में उलझ गया |कॉलेज के कैम्पस सिलेक्शन में एक अच्छी कंपनी में सिलेक्ट हो गया |कुछ ही दिनों में शादी भी हो गयी और फिर उसकी काबलियत देखते हुए, कंपनी ने उसे विदेश भेजा |विदेश जाने के पहले वो अपनी पत्नी के साथ गांव आया था मिलने पर अब गांव भी गांव कहाँ रहा था आधा शहर हो चुका था |


विदेश पहुँचने के बाद वहां मिलने वाली सुविधाएं फ्री एजुकेशन, ओल्ड ऐज फ्री मेडिकल सर्विसेस, अच्छा वेतन, तनावरहित वातावरण इन सबके चक्रव्यूह में फंस गया |क्यूँकी आजकल पैसा सर्वोपरि है उसके बाद ही कुछ और... बेटी वहीं पैदा हुई तो ग्रीन कार्ड भी मिल गया और फिर भारत का एक देशी परदेसी बन के रह गया | पर भारत उसके दिल से नहीं गया |


पर इसके जिम्मेदार हमारी जरूरत से ज्यादा आकांक्षाओं ने जो मुँह उठा रखा है वो भी तो है |विदेश में रहने वाले बड़ी शान से देखे जाते हैं हमारे देश में, भले वो वहां बर्तन ही क्यों न धो रहे हैं, पर उनकी इज़्ज़त सिर्फ विदेशी होने के कारण बढ़ जाती है, और यही देख हमारी आगे की पीढ़ी अपने महत्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए जीं जान लगा देती है खुद को देशी से परदेसी बना लेने के लिए |


धन्यवाद 

सुरभि शर्मा 





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