जैसे बंजारे को घर

एक कहानी मानवता की

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Surabhi sharma
Surabhi sharma 18 Dec, 2021 | 1 min read

रूपाजी बैचैन सी अपने कमरे के अंदर बाहर कर रही थीं, बीच- बीच में घर का दरवाजा भी देख आती, कहीं कोई आहट तो नही हुई! घड़ी की सुई तेजी से सरकती जा रही थी, उतनी ही तेजी से उनकी बेचैनी भी बढ़ती जा रही थी। पिछले 15 सालों में तो कभी ऐसा नहीं हुआ था कि 9 फरवरी को उनको चॉकलेट का पारसल न मिला हो, फिर आज ऐसा क्या हो गया!! घड़ी रात के 8 बजा चुकी थी और रूपाजी का खुद पर से विश्वास भी थोड़ा डगमगा गया शायद! दुनिया, और समाज जो कहता है वो ही सच होता है, हम ही दिल के हाथों मजबूर हो रीत बदलने चल देते हैं, आँखें नम थी और ठंड भरे मौसम में जज्बात कुछ नरम गरम थे।

अरे अब अंदर आ जाइए नहीं तो ठंड लग जाएगी। उनके पति ने उन्हें आवाज लगायी, समय के साथ सब कुछ बदल जाता है, लोग मतलब निकल जाने पर भूल जाते हैं वैसे भी वो बड़ा अधिकारी हो गया है। हम जैसे रिटायर्ड टीचर का उसकी जिन्दगी में अब क्या महत्व रह गया होगा। खामाख़ावह आप अपना बी पी बढ़ा रही हैं।

पर रूपाजी का मन कुछ मानने को तैयार न था, मन राजधानी एक्सप्रेस की स्पीड से अतीत के पन्ने पलट रहा था।

माँ चार दिनों से कुछ खाया नहीं कुछ पैसे दे दो! किसी ने पीछे से उसका आँचल खींच रेलवे प्लैटफॉर्म पर आवाज लगायी वो पीछे मुड़ उसे झिड़कने ही जा रही थीं कि नजर उसके मासूम चेहरे पर पड़ी और वह उसे झिड़क नहीं पायी। ट्रेन आने में अभी वक़्त था तो उसे साथ लाया खाना देते हुए पूछ बैठी कि इतनी छोटी उम्र में भीख क्यों मांगते हो? बुरा नहीं लगता तुम्हारे उम्र के बच्चे तो स्कूल जाते हैं?

रोते हुए लड़के ने बताया मैं स्कूल जाता था पर दो साल पहले इसी स्टेशन पर भीड़ भाड़ में अपने मम्मी पापा से बिछड़ गया कुछ दिन रोता रहा फिर स्टेशन पर एक दादा मिले तो उन्होने कहा यहाँ रहना है तो भीख मांगना पड़ेगा और जो मिलेगा उसे सबसे मिल बाँट कर खाना पड़ेगा, दंग रह गयी थी ये सब सुन कर! पति से बहुत मिन्नतें कर किसी तरह उसे अपने साथ ले आई, अखबारों में इश्तेहार दिए कि लड़के के माता पिता का पता चल सके पर सब बेकार, लगाव सा होने लगा था उन्हें शिवाय से शिवाय यही नाम दिया था रूपाजी ने उस लड़के को।

पर घर परिवार और समाज के डर से खुद उसे गोद लेने की हिम्मत नहीं कर पायी, अब शिवाय को लेकर सवाल उठते जा रहे थे और उसे परिवारवालों की तरफ से अनाथालय में डाल देने का दवाब बढ़ता जा रहता था, उनकी ये करने की इच्छा नहीं थी पर फिर इस शर्त पर कि इसकी पढ़ाई का खर्चा मैं उठाउंगी उसमें कोई दखलअंदाजी नहीं करेगा, थोड़े ना नुकुर के बाद सब मान गये थे।

9 फरवरी चॉकलेट का डिब्बा पकड़ा और उससे मिलने आते रहूँगी का वादा कर, मन लगा कर पढ़ना हिदायत दे उसे अनाथालय छोड़ आई थी। पर दूर से ही सही उसके परवरिश में कोई कमी नहीं रखी उन्होंने, पहली बार डी एम की गाड़ी में बैठ चॉकलेट के डिब्बे के साथ सबसे पहले उसका ही आशीर्वाद लेने आया था। और तब से हर 9 फरवरी को उसके पास चॉकलेट का डिब्बा आ जाया करता था, फिर आज क्या हुआ?? घड़ी ने दस बजाए और साथ ही डोरबेल की आवाज ने उन्हें यथार्थ में ला पटका दरवाजा खोला तो रूपाजी हतप्रभ रह गयीं।

बड़े से चॉकलेट के डिब्बे के साथ शिवाय खुद दरवाजे पर खड़ा था रूपाजी के तो पैर ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे थे। आज उनका बेटा इस किराए के मकान से उन्हें अपने घर ले जाने आया था और एक डी एम के द्वारा माता पिता को गोद लेने में आज किसी को यहाँ तक कि रूपाजी के परिवार को भी कोई आपति नहीं थी। विषम परिस्थिति में भी अपनी क्षमतानुसार उन्होंने एक भटकते बंजारे की नैया पार लगाने की कोशिश की जिसका सुखद परिणाम आज चॉकलेट की मिठास के साथ उनके सामने था।

जरूरतमंद की मदद के कई तरीके होते हैं जरूरत होती है थोड़े भावुक जज्बातों और लोग क्या कहेंगे सुनने की सहनशीलता की।

सुरभि शर्मा


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