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पर्यावरण संरक्षण के लिए सचेत करती लघुकथा

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Sonia saini
Sonia saini 05 Jun, 2020 | 1 min read

तारकोल की बनी पक्की सड़कें और ऊँची ऊँची इमारतें...यही तो दिखाई देता था इस महानगर में। दूर दूर तक ना कोई तालाब, ना कुआँ और ना ही कोई हैंड पंप दिखलाई पड़ता था। पिछले दो तीन सालों से बरसात में होती गिरावट के कारण तापमान भी लगातार बढ़ता ही जा रहा था। गर्मियों की दोपहर इतनी भयावह और गरम होने लगी कि आदम क्या पंछी भी तिलमिला उठते। अमीरों के घरों में चलते ए सी कुछ राहत प्रदान कर रहे थे लेकिन गरीब का जीना मुहाल था। हरियाली, पेड़ पौधे और पंछियों का कलरव तो तभी नदारद हो गया था जब मनुष्य ने विकास के लिए इन दरख्तों को काटना सबसे सरल समझा था। 

भरी दोपहर, मैं काम के सिलसिले में निकला था। सड़कों पर पसरे सन्नाटे और आसमान से बरसती आग से मेरा हौसला पस्त हुआ जा रहा था। मैं प्यास से बेहाल सड़क किनारे बैठा ही था कि एक तेज़ हँसी की आवाज मेरे कानों में गूंजी!

"क्या हुआ.. प्यास से बेहाल हो?"

मैंने चौंक कर देखा,.... कोई नहीं दिखा...!

"माथे से चूता पसीना पोंछते हुए मैंने सूखे होंठों पर जीभ घुमाई तो मुझे प्यास और तेज़ी से सताने लगी।

" इतनी जल्दी घबरा गए? खुद को महामानव समझने वाले... , मशीन, रोबोट, कंप्यूटर, और हवाईजहाज बनाने वाले बुद्धिमान मानव, अगर बना सकता है तो बना ले अपनी प्यास बुझाने के लिए जल! बना ले किसी प्रयोगशाला में मेघ लाते बादल या निर्माण कर ले इन हरे भरे पौधों के विकल्प का।

अगर तू सच में बुद्धिमान है तो क्यूँ नहीं बना लेता कोई नदी अपनी अकाल पीड़ित आवाम के लिए..! और क्यूँ नहीं जमा देता वापिस इन ग्लेशियर पर बर्फ! क्यूँ ये प्रदूषित हवा को साफ करने का कोई यंत्र नहीं बना लेता...!"

उसने फिर से ज़ोरदार अट्टहास किया और आगे कहा," आखिरी मौका है अब भी संभाल ले अपने कदम, नहीं तो अपने विनाश का कारण तू खुद ही होगा! "

मैं शर्मिंदा सा सर झुकाए खड़ा था, अपने ही हाथों बनाई इन बहुमंजिला इमारतों की ओर देखने का साहस अब मुझमें नहीं बचा था।


सोनिया निशांत कुशवाहा

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Sonia saini

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