सुकून

मौजूदा समय के राजनीतिक व्यवस्था पर करारा व्यंग करती यह लघुकथा हैं।

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Soma Sur
Soma Sur 17 Feb, 2020 | 1 min read

"हरिया! सुन!!"

भुवेश ठाकुर के मुंह से अपना नाम सुनकर हरिया ठिठका।

"अरे कहां चल दिए? कल नेता जी की रैली में जाना है। नेता जी ने तुम लोगों का के लिए कितना कुछ किया है। याद है कि नहीं!! फिर वो तो तुम्हारी जाति के भी हैं। अच्छा सुन! १००० रूपए भी मिलेंगे साथ में खाना भी!! अपने दो-चार साथी और ले आना।" एक ही सांस में भुवेश ठाकुर बोल गया।

"पर मालिक कल मजूरी के लिए जाना है।"

"अरे! मजूरी को मार गोली!! सारा दिन घूमो फिरो खाओ पियो और पैसा भी ले जाओ। बेकार में क्या खटना! और सुन! तू खास हैं इसलिए बता रहा हूँ। बोतल भी मिलेगी।" हाथों से इशारा करके ठाकुर ने आँख दबाते हुए कहा।

हरिया के गांव में पिछले कुछ दिनों से नेताओं का आना-जाना बढ़ गया था। चुनाव के चलते प्रलोभन देने का सिलसिला बढ़ गया था। गरीब हरिया का ईमान भी कई बार डगमगाया। लेकिन अंत में उसने उसी जन प्रतिनिधि को चुना जिसने उसके क्षेत्र में विकास की नींव रखी थी। अनपढ़ हरिया के मन में आज सुकून है कि उसकी भागीदारी लोकतंत्र को मजबूत करने में रही।

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Soma Sur

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