अस्तित्व की खोज

अस्तिव की तलाश में भटकता व्यक्तित्व और उसकी परिणति पर एक रचना

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Snehlata Dwivedi
Snehlata Dwivedi 16 Apr, 2021 | 1 min read

अस्तित्व की खोज जारी रहती है।

व्यक्ति का शैशवकाल माँ के इर्द गिर्द और पिता के देखरेख में गुजरता है। क्रमशः व्यक्तित्व विकसित होता है। जाने अनजाने कितनी बातें, आदत, संस्कार, ज्ञान, सूचनायें व्यक्ति आत्मसात कर लेता है। क्रमशः शरीर बढ़ता है मानसिकता प्रौढ़ होती है। शिक्षा समाज और संस्कार बलिष्ट होता है। नौकरी रोजगार की खोज होती है, अर्थ, काम , संसाधन की होड़ में निरंतर  गतिमान मन मस्तिष्क भौतिक अस्तित्व की खोज में भटकता है या अस्तित्वविहीन जीवन जीने को बाध्य होता है। कभी कभी तो इसका अहसास भी नहीं होता बस अनायास स्वतः समय की गति से जीवन की डोर बंध जाती है और प्रारब्ध का खेल चलता रहता है।

अस्तित्व की खोज सामान्य सांसारिक जीवन के लिए अनवरत चलने वाली प्रक्रिया है। सुख - संसाधन , सम्मान, स्वाभिमान ,अभिमान , परिवार , समाज इत्यादि कई अवयव में उलझकर आदमी अस्तित्व की खोज में अस्तित्व विहीन हो जाता है। मैं मेरा ,तू तेरा, वो उसका इत्यादि चलता रहता है। वस्तुतः परस्पर संघर्ष और अस्तित्व की भौतिक खोज चलती रहती है। यह विभिन्न रूपों में बारम्बार सामने आती है। 

अस्तित्व की जरूरत के अहसास के बाद ही अस्तित्व के खोज की संकल्पना शुरू होती है। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है और चैतन्य एवं जागृत मन में अस्तित्व के होने और खोज की जरूरत का भान होता है। वैसे मैं कौन हूँ? यह एक अद्भुत यक्ष प्रश्न है। मैं यदि आत्मा हूँ और अनंत की यात्रा का शरीर एक पड़ाव मात्र है तो मेरी यह आध्यात्मिक यात्रा का आदि और अंत परमेश्वर है।उस स्थिति में व्यक्ति को अपने अस्तित्व का स्वतः ही ब्रम्ह के बृहत्तर स्वरूप का सूक्ष्मतम भाग होने के कारण अहम ब्रह्मास्मि और यत पिंडे तत ब्रह्माण्डे का यथार्थ बोध होता है , इसप्रकार एक यात्रा सहज सम्पन्न होती है और कर्ता भाव का लोप हो जाता है।

सांसारिक जीवन में कर्ता भाव का लोप कर लेना या स्वभावतः हो जाना सामान्य स्थिति नहीं है। साधारण मानव कर्म और फल को जोड़ता है, फल की कल्पना से कर्म को संचालित करता है। अतः कुछ पाने से खुश और खोने से व्यथित होता है। वह संसाधन व्यवस्था , समाज, राजनीति में स्वयं को ढूंढता है, अपने को स्थापित करता है। अपने अस्तित्व का अहसास करता है। आकांक्षाओं को बढ़ाता है। कभी संतुष्ट नहीं रहने की प्रवृति को स्वतः ही पालता है। नित नये लक्ष्य गढ़ता है, स्वयं को पुनः गढ़ता है। आगे बढ़ता है। दौड़ता है। थकता है। तब ब्रम्ह के समीप आता है। अहसास का परिमार्जन होता है। कतिपय आत्मा को पहचानने की कोशिश करते हुए दैहिक यात्रा समाप्त करता है। कभी कभी तो सांसारिक मायावी दुनिया में ही दैहिक लीला जा अवसान हो जाता है। अस्तिव की खोज जारी रहती है।


डॉ स्नेहलता द्विवेदी 'आर्या'

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