कैद

कई ज़ंजीरें और कैद अदृश्य भी होते हैं।

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Shubha Pathak
Shubha Pathak 01 Feb, 2021 | 0 mins read
#freefromboundations #1000poems

शीशे में कैद सी देखो एक तस्वीर है!

क्यों गुमसुम सी उससे, उसकी ही तकदीर है?

जकड़न है क्या ये ज़ंजीर की?

या उलझे से कुछ रिश्तों की ताबीर है?

कभी इसमें घुली, कभी उसमे मिली

शक्कर की जैसी इसकी भी तासीर है।

छटपटाती है पाने को ये बहुत कुछ,

ना समझो कि ये बस एक शरीर है।

इक सच्चा प्यार, कुछ सच्चे रिश्ते,

बस यही तो इसकी सबसे बड़ी जागीर है।

कैद अगर जज़्बातों की हो तो मत खोलो इसे,

बस बंधन सपनों पर ना हो, उसी के लिए ये अधीर है।

"हां उड़ना है इसे, तो क्यों परेशानी है?

दे दो बस मुट्ठी भर आसमां,

क्या उसपर भी सिर्फ तुम्हारी ही जागीर है?”

देखो बदल रहा है वक़्त, हवा का रुख भी है बदला,

फैसले नए लेने को अब ये भी गंभीर है।

तन और धन बेमानी हैं इसके लिए,

शौक इसके बड़े हैं क्यूंकि, ये मन की फकीर है।

©®

मौलिक एवं स्वरचित

शुभा पाठक






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Shubha Pathak

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