लकीरें

बातें लकीरों से।

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Shubhangani Sharma
Shubhangani Sharma 17 Sep, 2020 | 1 min read

मेरी लकीरें अक्सर ये पूछती हैं मुझसे,

"क्या हुआ?? तुम्हारा तो मेरे अनुसार चलने का इरादा ना था,

बदस्तूर रिवाज़ों में बँधने का वादा ना था।

अभी भी वक़्त है, देख लो बाद में मुझसे शिकायत ना करना,

जब वक़्त बीत जाए तब बगावत ना करना।।"

मैंने भी मुस्कुराकर कहा, 

"मेरी लकीरें हो तुम,

हाथों में ही रहोगी।

अपनी रफ्तार से ना छल पायीं,

तो क्या अपने कटाक्ष से छलोगी।

आड़ी तिरछी हो तुम 

तो क्या लगा मेरी ज़िंदगी भी वैसी ही रहेगी

वो मेरी है मेरे कहने पर चलेगी।

पर सोच तो जरा क्या तुम मेरी मित्र नहीं या तो मुझे जानती नहीं।।

मेरी लकीरों ने भी मुझसे मुस्कुरा कर कहा ,

"चल आज मेरा यह तुझसे वादा रहा ,

तेरा थोड़ा साथ दे दूंगी थोड़ा प्रयास तू कर लेना जितना हो सके मुट्ठी में आकाश को भर लेना।।"

मैंने भी मुस्कुरा कर कहा,

तूने अभी देखा होगा जो दिया तूने मुझे 

उसको मैंने स्वीकार किया

अपने आपको जीवन के हाथों में सौंप दिया,

चल आज हम थोड़ा खुद पर यकीन करते हैं।।

मैं तो पानी हूं हर शय में समा जाऊंगी 

आज नहीं तो कल अपना मुकाम पा ही जाऊंगी।।


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