परंपरा, संस्कृति और भक्तिभाव आत्मविजय के साधन

परंपरा, संस्कृति और भक्तिभाव आत्मविजय के साधन

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Saket Ranjan Shukla
Saket Ranjan Shukla 28 Jan, 2023 | 1 min read
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जब-जब आत्मविश्वास मेरा लड़खड़ाता है,

अंतर्मन नकारात्मक ऊर्जाओं से घबराता है,


खुदके राह पर से भरोसा डगमगाने लगता है,

अविश्वास मन मस्तिष्क में घर बनाने लगता है,


दर्पण में भी पराजयी का ही प्रतिबिंब दिखता है,

ये हृदय भी जब हतोत्साहित से बोल लिखता है,


तन का सारथी मन, जब आपे में ही नहीं रहता है,

हिमराज सा हौसला, कंकड़ों की चोट से ढहता है,


जीवन सरिता में भंवरों की संख्या बढ़ने लगती है,

हर एक लहर मुझ नाविक पर भारी पड़ने लगती है,


तब हार मानने से पूर्व परमेश्वर की शरण में जाता हूँ,

आत्मध्यान कर, हर दैवीय शक्ति से गुहार लगाता हूँ,


पारंपरिक पोशाक धारण कर भक्ति भाव में रमता हूँ,

स्वयं समर्पित कर ईश्वर को, आशीष तिलक करता हूँ,

उपासना उपरांत ज्यों ही कोई मनोरथ मन में लाता हूँ,

सकारात्मकता का इक प्रकाशपुंज स्वयं में ही पाता हूँ,


इच्छाएं पूर्ण नहीं होती पर युक्तिद्वार सारे खूल जाते हैं,

निराशा और पराजय जैसे भाव, स्वतः ही धूल जाते हैं,


तत्पश्चात आत्मविश्वास जागृत कर नवीन साँसे भरता हूँ,

मैं इसी भांति हर बार आत्मविजयी होकर आगे बढ़ता हूँ।


BY :— © Saket Ranjan Shukla

IG :— @my_pen_my_strength

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Saket Ranjan Shukla

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