सपनों का शहर, ख़्वाबों का आसमान लिखता हूँ,
जोश भरे पंखों से मैं हौसलों की उड़ान लिखता हूँ,
जख्मों से छलनी हुए पाँव मेरे, काँटो से यारी न हुई,
फ़िर भी अपनी इन राहों को मैं गुलिस्तान लिखता हूँ,
कभी ख़ुद से तो कभी अपनों की मदद से सँभला मैं,
अपने हिस्से मेहनत और औरों के एहसान लिखता हूँ,
मुसाफिरों सा जिया हूँ, बंजारों की तरह भटकता रहा,
जहाँ मिला सुकुन मुझे, वहीं अपना मकान लिखता हूँ,
लिख लिखकर तो एक पूरा अरसा गुज़ारा है “साकेत",
क्या बाकी रहा जो आज भी हर एक दास्तान लिखता हूँ।
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