लिंग भेद

लिंग भेद समाज की कड़वी हकीकत

Originally published in hi
Reactions 0
72
Ruchika Rai
Ruchika Rai 02 Apr, 2024 | 1 min read

लिंगभेद यह एक ऐसा मुद्दा है जो आदि काल से चला आ रहा है और कथित आधुनिक युग में भी वह समाज में व्याप्त है।

वह इस तरह से हमारे सामाजिक व्यवस्था में समाहित हो चुका है कि वह एक हद तक हमें महसूस ही नही हो पाता है।और जहाँ महसूस होता है वहाँ पर लिंग भेद की दशा दयनीय है तभी हमें महसूस भी हो पाता है।

एक बच्ची जब जन्म लेती है तबसे ही लिंग भेद शुरू हो जाता है या यूँ कहें तो गर्भावस्था से ही लिंग भेद की पृष्ठभूमि तैयार होने लगती है।

गर्भवती महिला से यह उम्मीद की जाती है कि उसको पुत्र की ही प्राप्ति हो।

पुत्र के इंतजार में भ्रूण परीक्षण,गर्भपात कराए जाते हैं।अन्यथा पुत्र के इंतजार में कई पुत्रियाँ पैदा कर ली जाती हैं भले ही उनके पालन-पोषण का सामर्थ्य न हो।

इसके बाद महंगे से महंगे स्कूल में पुत्र का नामांकन पुत्रियों का सरकारी विद्यालयों में नामांकन, विषय और क्षेत्र चुनने की आजादी लड़कों को मिलती हैं लड़कियों को यह आजादी बहुत कम ही घरों में मिलती है।फिर अभी वह पैरों पर खड़ी भी नही हो पाती तब तक इहलोक से परलोक तक को मंगल करने के लिए उनकी जल्दबाजी में शादी की जाती है।

माता-पिता विवाह में भारी भरकम दहेज तो दे देते मगर अपनी सम्पति में हिस्सा देने से गुरेज करते।

अगर कोई लड़की अपने हक के लिए आवाज उठाए तो अच्छा नही समझा जाता।

बेटियों को जिंदगी भर मायके और ससुराल की दोहरी पाट में पीसना पड़ता यह कहा जाय तो कोई गलतीं नही होगी।

मायके में उन्हें ये कहा जाता है कि अपने ससुराल में निर्णय लेना यहाँ पर बीच में बोलने की जरूरत नही और ससुराल में कहा जाता कि गैर घर से आई हो तुम्हें क्या पता ।

यह छोटे छोटे विभेद इतने अंदर तक हम आत्मसात कर चुके हैं कि हमें यह लगता है कि यह सही है।

आज भी कितनी स्त्रियाँ हैं जो कमाती जरूर हैं पर उनका पैसा कहाँ खर्च हो उसका निर्णय नही ले सकती।

छोटे-छोटे खर्च को छोड़ दें तो कोई भी बड़ा आर्थिक निर्णय घर का मुखिया पुरुष ही लेता।

उनकी आर्थिक रूप से आत्मनिर्भरता बस इतना रियायत देती की उन्हें पता होता कि यह होने जा रहा है।

इस तरह देखा जाय तो नारी को अबला,बेचारी या फिर देवी तो मान लिया जाता है मगर लिंगभेद के कारण उन्हें सामान्य इंसान के रूप में मान पाने से गुरेज किया जाता

कईं घरों में सुरक्षा के कारणों का हवाला देते हुए लड़कियों को उच्च शिक्षा के लिए अपने शहर से बाहर के कॉलेज में नामांकन की इजाजत नही दी जाती,मजबूरीवश उन्हें अपने शहर के नजदीकी साधारण कॉलेज में पढ़ाई पूरी करनी पड़ती।

अभी भी ग्रामीण क्षेत्रों में यह आसानी से देखने को मिल जाएगा लड़कियों को उच्च शिक्षा इसलिए दी जाती की ताकि उन्हें अच्छा घर-और वर मिल सके।

लड़कियां घर की व्यवस्था को अच्छे से सम्भालती है भले ही वह अर्थशास्त्र में अच्छे नंबर लाएं मगर यह माना जाता की आर्थिक व्यवस्था की जिम्मेदारी बनाना उनके बस की बात नही।

चंद पंक्तियां जो मैंने लिखी हैं की स्त्री स्वतंत्रता को किस तरह परिभाषित किया जाता तब आप स्वयंमेव समझ जाएंगे कि लिंग भेद किस कदर हमारे समाज में है।



चल रही थी स्वतंत्रता की बात,

मुद्दा था सबके लगा एक हाथ,

स्वतंत्रता स्वच्छंदता बन जाती है,

जब आजादी या छूट दी जाती है।

मेरे मन में बस आया एक ख्याल,

रबड़ को देखा कभी तुमने,

जितना खींचो उतना ही टूट जाता।

फिर क्यों खींचते हो बंधन के नाम पर

छोड़ दो उसके उस हाल पर।

देखना खुद बखुद वो फर्क करना सीख जाएगी,

सही गलत को पहचान पाएगी,

जिम्मेदारियों को भी पूरी तरह निभाएगी।


स्त्री स्वतंत्रता की बयार जब बहती है,

योजनाओं की गणना चलती है,

नारी उत्थान के नारे जलसे,

बयानबाजी खूब जोर शोर से ,

आरक्षण के नियम भी गिनावाये जाते हैं,

पर सोच कैसे बदले ,ये नही बताये जाते हैं।


स्वतंत्रता की बात जब चलती है,

जिम्मेदारियों की बात सिर चढ़कर बोलती है,

नौकरी पढाई गृहस्थी की बात चलती है,

आर्थिक स्वतंत्रता के नाम पर मॉल में शॉपिंग घरदारी की जिम्मेदारी बस यही कहती है।


लेकिन अफसोस चंद फिक्स डिपाजिट पर नाम,

कुछ जमीन के कागज 

और कुछ गहने 

पर्स में चंद रुपये बस यही आर्थिक स्वतंत्रता के नाम दी जाती।

और कहा जाता जमाना बदल रहा,

स्त्रियों को आजादी मिल रहा।


0 likes

Published By

Ruchika Rai

ruchikarai

Comments

Appreciate the author by telling what you feel about the post 💓

Please Login or Create a free account to comment.