कोहरा

कुहरा

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 13 Jan, 2024 | 1 min read

कोहरे की घनी चादर

ओढ़कर देखो सुनसान पड़ी है धरा।

हर तरफ सन्नाटा

उजाले को ढकती और अँधेरे को

आस पास फैलाती है कोहरा।


आतुर है छिनने को धूप,

और फैला रही है चारों तरफ धुंध।

ताकि न कर सकें दृष्टि का विस्तार

और न दिखाई दे सके

धरा का कोई दृश्य।


कोहरा मानो कह रही हो

चाहती हूँ मिलना रवि किरणों से

बिखरना चाहती हूँ संग उसके

और होना चाहती हूँ एकाकार संग उसके

ताकि पहुँच सके धरा पर धूप।


कोहरा कर रही है रात का विस्तार

थोड़ी और देर तक।

वह दे रही है मात रवि किरणों को

मगर मद्धम धूप धीरे धीरे

हो जाता है प्रखर

कोहरे के साथ एकाकार होकर।



कोहरे को मात देकर शीत

को विदा करके

कर रहा है दिन का विस्तार

अकेला सूरज

समय के साथ धीरे-धीरे।

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