बेहिसाब हसरतों का मन में पलना,
उनके पूरे करने के लिए मचलना,
फिर भी न पूरा हो सके तो
दोष किसको दूँ?
जो मिला उसके लिए करते शुक्रिया,
फिर भी बढ़ती लालसाओं के लिए
क्या किया?
उनके लिए दिल में बढ़ती बेचैनियां
दोष किसको दूँ?
हर जगह ढूढती सदा ही अच्छाई,
अनवरत मिलती नेकियों की कमाई,
फिर भी कभी मिल जाये बुराईयां
दोष किसको दूँ?
चाहती हूँ जीवन में सबका भला हो,
कर्म ऐसे करूँ जिससे न किसी को
कोई भी गिला हो,
फिर भी बनकर गुनाहगार मिलती
रुसवाइयाँ,
दोष किसको दूँ?
दिल के दरवाजे पर बंद करके ताले,
बहकती भावनाओं को खुद संभाले,
अगर कभी कदम जो डगमगाए
दोष किसको दूँ?
ढूढती रही सदा ही इस प्रश्न का उत्तर
हर जगह से बेरंग लौटी निरुत्तर
अनुत्तरित प्रश्नों का बोझ ढोती
दोष किसको दूँ?
बस अब छोड़ दिया सब कुछ वक्त पर,
वही होगा जो लिखा होगा प्रारब्ध में
बस यही सोच कर कर्म किये जा रही
दोषी खुद को ही बना रही।
दोष खुद को दें।
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