जेठ की तपन उद्विग्न है मन,
पसीने से भींगता सारा बदन,
हलक सारा सूख रहा हर वक़्त,
बेचैन है यहाँ प्रत्येक जन।
धरती तप रही आग समान,
राहत नही मिलता किसी मकान,
हर तरफ उमस और बेचैनी है,
जैसे मुसीबत में फँस गयी जान।
सूर्यदेव भी जैसे आग उगल रहे,
देख कर पशु पक्षी भी दहल रहे,
पेड़ों की छाँव खोजते हैं सभी,
आइसक्रीम देखकर हर मन मचल रहे।
खेतों की हरियाली भी खो रही,
धरा जैसे प्यासी होकर रो रही,
प्रचंड ताप से अकुलाहट है फैली,
भरी दुपहरिया जिंदगी जैसे सो रही।
बादलों के बरसने का इंतजार है,
तभी मिलेगा चैन वो करार है,
जल की बूँदों को तरसते हैं सभी,
हर तरफ पानी के लिए हाहाकार है।
ये गर्मी सबको बड़ा सताती है,
नींद कहाँ किसी को आती है,
रात में हल्की सी हवा जो चले,
जिंदगी फिर मुश्किल से लौट आती है।
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