बेटी पराई

बेटियाँ पराई

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 01 Sep, 2021 | 0 mins read



न जाने कैसी ये रीत बनाई,

अपने ही घर में बेटी हुई पराई।


जन्म से पहले ही वो संघर्ष करती हैं,

कोख में ही कितनी बेटियाँ मरती हैं,

समाज के ताने बाने में बैठती नही

इसलिए वो मृत्यु को भेंट चढ़ती हैं।


न जाने कैसी ये रीत बनाई,

अपने ही घर में बेटी हुई पराई।


खेलने की उम्र में जिम्मेदारियां मिली,

बेटों से असमानता उनके हिस्से पड़ी,

वंश की रक्षा का हवाला देकर,

कितने ही अरमान उनकी बलि चढ़ी।


न जाने कैसी ये रीत बनाई ,

अपने ही घर में बेटी हुई पराई।


दहेज़ के आग में अरमान उनके है जले,

चुपचाप वो है न जाने कितने जुल्म सहे,

कुल की मर्यादा की रक्षा के लिए,

मौन रहती हैं जुबा कुछ नही है कहे।


न जाने कैसी ये रीत बनाई,

अपने ही घर में बेटी हुई पराई।


कहावत हर जुबान से ये वो सुनती है,

डोली गई बेटी नही पीहर चुनती है,

दर्द चुपचाप वह सहते हुए,

मृत्यु वरण कर अर्थी से निकलती है।


न जाने कैसी ये रीत बनाई,

अपने ही घर में बेटी हुई पराई।

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