कविता

लिखती हूँ

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 22 Mar, 2022 | 1 min read

लिखती हूँ

कुछ बातें ,कुछ जज्बातें,

कुछ कमजोर पड़ जाते जीवन के लम्हातें।

लिखती हूँ

कुछ हँसी,कुछ खुशी,

कुछ अपने हिस्से में आई जीवन की बेबसी।

लिखती हूँ

कुछ उदासी,कुछ उबासी,

कुछ लम्हें जिन्हें पाकर भी रही मैं प्यासी।

लिखती हूँ

कुछ पाना,कुछ खोना,

कुछ घटनाएं जिनमें चाहती थी खुलकर रोना।

लिखती हूँ

कुछ प्रीत के गीत,

कुछ हसीन मुलाकातें जिनमें चाहत रही मनमीत।

लिखती हूँ

कुछ सपने,कुछ अपने

कुछ सपनों में ही लगे बेहद खास अपने।

लिखती हूँ

कुछ ज्ञान,कुछ विज्ञान

कुछ ऐसी घटनाएं जिनसे बना कोई महान।

लिखती हूँ 

कुछ मर्ज,कुछ दर्द

कुछ दर्द में बना कोई मेरा बेहद हमदर्द।

लिखती हूँ

कभी मन की घुटन,कभी कोई चुभन

कभी बाहर के मौन पर भारी पड़ते अंदर के शोर को।

लिखती हूँ

कभी खाली हाथ,कभी तन्हा रात

कभी कोई न दे रहा हो जब मेरा साथ।

लिखती हूँ

रीते मन को ,बेबस तन को

कभी सजल होते हुए नयन को।

बस यूँही लिखती रहती

हर लम्हें हर हालात को।

मेरा लिखना मेरी अंतरात्मा की आवाज है,

जैसे संगीत की धुन पर बजता कोई साज है।

दिल के कोने छुपा कोई राज है।

जो नही था कल या फिर नही होगा कल

यह तो सिर्फ आज है,

यह तो सिर्फ आज है।


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Ruchika Rai

ruchikarai

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