युवाओं में बढ़ रहा अपराध का विचार,
दोषी कौन परिवार, समाज या सरकार।
हत्या मारपीट चोरी डकैती की क्या कहें,
वो तो करते मॉं बहन बेटियों का बलात्कार।
दिनों दिन अपराध का ग्राफ है बढ़ रहा,
क्यों नही सीख पा रहे हैं वो संस्कार।
बेकारी, भूखमरी बेरोजगारी का ये असर है,
या फिर परिवेश में हो रहे कुत्सित विचार।
अंधाधुंध विकास की होड़ में वी दौड़ते,
भूलते जा रहे इंसानियत का व्यवहार।
रोज अपराधों की संख्या बढ़ती जा रही,
रोकने में दिख रहे सभी विवश लाचार।
संपति के लिए भाई भाई को मारता,
युवाओं को अस्तित्व पर नही धिक्कार।
भेड बकरियों से बदत्तर जीवन बना है,
कैसे उबरेंगे इस माहौल से होकर पार।
युवाओं में बढ़ता जा रहा अपराध है,
युवा भी स्वयं इसके हो रहे हैं शिकार।
नैतिक मूल्यों के पतन को देख कर,
मन पर चोट पड़ती हो रही हमारी हार।
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