है पथ में काँटे अनगिनत,
फिर भी मैं खुद को कैसे रोकूँ।
है लक्ष्य भेदना है जरूरी,
यह जानते हुए खुद को क्यों टोंकूँ।
माना कि नही काबिल मैं
तूफानों से लड़ने को।
फिर भी खुद को तन्हा छोड़ूँ
मैं समर भूमि में डरने को।
करूँ सामना मुसीबतों का
पत्थर से टकराउंगी।
गिरकर उठकर फिर सम्भलूंगी,
मंजिल तक कदम बढाऊंगी।
अन्याय का प्रतिकार करूँगी,
नही सब कुछ सह जाऊँगी।
अन्यायी का दम्भ तोड़ने को,
आगे कदम बढाऊँगी।
जब जिद में आ जाये तो,
चींटी भी सर्वनाश करें।
दुश्मन के लिए खतरा बन
हम उसका भी विनाश करें।
है तुच्छ जीव में डरकर
कभी नही रुक जाऊँगी।
हो समर अगर देश के लिए
मैं अवश्य कदम बढाऊँगी।
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