अपने दायरे से बाहर निकलने की
अनगिनत कोशिश
फिर भी मन के अंदर बैठे
वहम से बाहर कहाँ आ पाती हूँ।
अविश्वास और विश्वास की देहरी पर
झूलते हुए अक्सर
खुद को तकलीफ पहुँचा जाती हूँ।
खुशी की तलाश में भटकती रही,
पर अपने अंदर की खुशी को अक्सर भूल जाती हूँ।
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घटनाओं और उस पर त्वरित प्रतिक्रिया
अक्सर मन को उलझा देता है।
पर उलझे हुए मन में भी
संवेदना का स्तर कम होता जाता है।
अपनी तकलीफ में आकंठ डूबा मन
दर्द दूसरों के समझ नही पाता है।
बस खुशी की तलाश में भटकता हुआ,
अपनी ही खुशी पर केंद्रित होकर रह जाता है।
और अक्सर कहता है
वह तकलीफ पाता है।
बस एक बार तकलीफ न देने की वजह बनें
फिर देखे सुकून कितना मन पाता है।
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