इतने बड़े जहान में शायद प्रेम रहा
सबसे उपेक्षित,
सबसे तिरस्कृत,
प्रेम की महत्ता बनी रही जरूरतों तक
या फिर प्रेम को अपनाया गया
सूरत से।
इतने बड़े जहान में दुख साँझे रहे,
दुख को समझा सबने,
कुछ अफ़सोस,
कुछ सहानुभूति,
कुछ सलाह,
दुख के साथ साथ ही चले।
नही बँटा वह आकर्षण पर,
नही जाति और धर्म पर
नही बाह्य सुंदरता पर।
इतने बड़े जहान में प्रेम का अस्तित्व
सदा ही रहा खतरे में,
कभी शारिरिक ,कभी मानसिक ,कभी चारित्रिक
लांछनों के डर में दबा सहमा सा।
या फिर दैहिक लालसा से भयाक्रांत होकर
मुखर होने की कोशिश नही की।
इतने बड़े जहान में दुख के साथी,
अपने से लगे
दिल के करीब
दिल से जुड़े हुए।
विडंबना यही प्रेम जरूरी मगर वह
बन गया संकुचित।
और दुख तिरस्कृत,
मगर बन गया सबका साँझा।
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