उम्मीदों का तिलिस्म टूटता हुआ,
मन के आखिरी परतों तक चोटिल,
घाव गहरे ,टीस से चुभते
उसकी चुभन मन को बेधती
वेदना का स्तर बढ़ता ही जाता,
विकल्प नही कुछ नजर आता।
घनी काली रात ,
नही उम्मीद की कोई भी किरण,
न एक जुगनू का भी आना,
उरस्थल में पीड़ा ,
मानो सब कुछ उलझा उलझा हुआ,
सुलझाने का एक भी रास्ता नजर नही आता।
फिर भी रुकना ,ठहरना,विचारना
और बेहतर विकल्प की तलाश में
भटकते जाना।
साँसों के संग ही चलता है ये
ताना बाना।
चट्टान से हौसले होते जब चोटिल,
हिम्मती होने का घेरा टूट जाता।
फिर काश किंतु परंतु
में उलझा हुआ मन
एक चमत्कार की आस में प्रतीक्षारत।
बस उलझन सुलझाने का
कोई सिरा मिल जाये।
या फिर संवेदनशीलता,
संवेदनशून्यता में बदल जाये।
जीवन के हर साँस के साथ
बस यही दुआ ,यही प्रार्थना।
कड़वी हकीकत जिंदगी की
स्वीकारने का एक बार हौसला आये।
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