पहचान

पहचान

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Ruchika Rai
Ruchika Rai 24 Nov, 2021 | 0 mins read

पहचान की तलाश में ताउम्र भटकती रही,

हम स्त्रीयाँ स्वतंत्र अस्तित्व के लिए तरसती रही।


बचपन से यौवनावस्था की दहलीज पर कदम रखा,

कभी सुख के कभी दुख के हर स्वाद को चखा,

अपनी पहचान क्या है ये कभी न मन में है सोचा,

शादी विवाह बीतते ही छूट जाएंगे बालपन के सखा।


पिता से नाम मिला पिता से ही पहचान मिली,

पिता के अस्तित्व के मान से है खुद को मान मिली,

अलग पहचान कैसे बने यह सदा मन में ध्यान आया,

पति का जब नाम जुड़ा संग में उनका उपनाम मिला।


स्वतंत्र पहचान की तलाश में भटकती रही ताउम्र,

पर कहाँ यह कभी भी पहचान मिली।



भाई जब सहारा बना संग उसका ही नाम जुड़ा,

बुढापे में बेटे के संग नाम जुड़कर जीवन हुआ पूरा,

यह कैसी विडंबना बेटी के ताउम्र सेवा का भी,

इस समाज द्वारा न कोई योगदान मिला।


स्वतंत्र पहचान की तलाश में भटकती रही ताउम्र,

पर ना ही नाम जुड़ा और ना ही पहचान मिला।

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