कलम कहाँ अब सच लिख पाती है,
कभी सत्ता की खुशामदें
कभी कुर्सियों की आमदें
कभी स्वार्थपूर्ति की साधना के लिए
यशोगान लिखती रह जाती है।
कलम कहाँ अब सच लिख पाती है।
कभी डरी सहमी सी,
कभी लालच में लगी पड़ी सी,
कभी व्यर्थ के विवादों से बचती हुई सी,
बस मौन रह जाती है।
कलम कहाँ अब सच लिख पाती है।
कभी अपनी कमियों को छुपाती सी,
कभी सच को झूठ बनाती सी,
कभी नकली मायाजाल में फँसाती सी,
सत्य लिखने का हौसला नही जुटा पाती है।
कलम कहाँ अब सच लिख पाती है।
झूठी तारीफ बटोरती वो,
कड़वी सच्चाई छुपाती वो,
अपनी गलतियों को समेटती वो,
बस अपने लाभ के लिए लिख जाती है।
कलम अब सच कहाँ लिख पाती है।
सच्चाई का आईना बनी कलम,
अब बीते जमाने की बात कहलाती है।
जाति पाँति में बँटी वो,
धर्म के नाम पर लड़ी वो,
अमीरी गरीबी का फर्क दिखलाती वो,
वो दरबारी चापलूस बन जाती है।
कलम अब सच कहाँ लिख पाती है।
पत्रकारिता दिवस की शुभकामनाएं
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यथार्थ
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