इंसान कहाँ सुनता हैं किसी भी बात को,
अपने पर जब तक न बीते कहाँ चेतता है।
विकास की अंधी दौड़ में खुद को लगाया,
इंसान को इंसान से वह मशीन है बनाया।
जब तक न वह गिरे खुद कहाँ संभलता है,
वह आज भी अपनी मनमर्जियाँ करता है।
पेड़ों को काटा,जंगलों को साफ कर दिया,
बड़ी बड़ी इमारतों का विकास कर दिया।
जब तक चोट न लगे वह दर्द कहाँ समझता है,
इंसान सुधरने की कोशिश कहाँ करता है।
गाड़ियों की रेलमपेल से हवा दूषित किया,
कूड़े कचरे से जल को दूषित किया।
कचरे के अंबार का वह ढेर धरा पर रखता है,
उसके लिए वह कहाँ उपाय करता है।
इंसान समझने की कोशिश कहाँ करता है,
वह रोज गलतियों पर गलतियां करता है।
पानी खरीदकर पीना शान समझता था,
आज ऑक्सिजन के लिए तरसता है।
जीवन कितना दुरूह कठिन बना दिया उसने
जीने के लिए खौफ के साये में रहता है।
फिर भी इंसान इंसानियत को मारता है,
वह अब भी इतने कष्ट पर भी नही सुनता है।
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