बढ़ते तालाक टूटते परिवार
"बढ़ते तालाक टूटते परिवार"
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भारतीय महिलाएं तलाक का नाम लेना भी पाप जैसा मानती थीं। भारतीय समाज में तलाक के गिने-चुने मामले ही होते थे। तलाक लेने वाली महिलाओं को लोक निकृष्ट मानते थे। दोष पति का हो या पत्नी का। माना यही जाता रहा है कि पत्नी में ही कोई दोष होगा, तभी तो पति ने छोड़ दिया। महिलाएं तलाक शुदा महिला से बात करना भी अच्छा नहीं समझती थीं। तलाक शुदा महिला के विषय में माना जाता था कि वह अत्यंत गिरी हुई तथा बदचलन औरत है। अशिक्षा और जागरुकता के अभाव में औरत पति के घर में घुट-घुटकर मर जाना ही तलाक से बेहतर समझती थी।
भारत में शादियां टूटने की घटनाएं लगातार बढ़ रही हैं। पति-पत्नी में झगड़े के कारण पिछले एक दशक में देश भर में तलाक दर तीन गुना हो गई है। दिल्ली को तो तलाक की राजधानी कहा जाने लगा है। मुंबई में तो स्थिति और भी बुरी है। वहां सन् 2002 के बाद प्रतिदिन यदि पांच शादियां पंजीकृत होती हैं तो तलाक के दो मामले भी दर्ज होते हैं। कई लोग इसका पूरा दारोमदार शिक्षित कामकाजी महिलाओं पर डालते हैं। यह सच है कि टकराव का कारण धैर्य की कमी और अहं होता है और इसी कारण कई बार तलाक की नौबत आ जाती है। यह भी कि वैश्वीकरण, आर्थिक उदारीकरण और सामाजिक-नैतिक मूल्यों में आए बदलाव के कारण महिलाओं की सोच बदली है। अपने अधिकारों के प्रति भी वे जागरूक हुई हैं। और अब अपनी गरिमा से वे घटिया समझौता नहीं करना चाहतीं। पति परमेश्वर और सात जन्मों के साथ जसे जुमले अब उन्हें रास नहीं आते। अपने स्वतंत्र अस्तित्व, करियर और गरिमा को बनाए रखने के प्रति वे सजग हैं। पर इसका अर्थ यह कतई नहीं कि वे पति के साथ रहना नहीं चाहतीं। वे दाम्पत्य तो चाहती हैं, पर अत्याचार सह कर नहीं।
सच्ची सहभागिता तभी संभव है जब एक-दूसर के प्रति प्रेम व विश्वास हो। विवाह संस्था पर मंडरा रहे इस संकट से चिंतित अंतरराष्ट्रीय गैर सरकारी संगठन रक्षक ने तो चेतावनी दे दी है कि अगर समय रहते इस तरफ ध्यान नहीं दिया गया तो तलाक के मामले में भारत विश्व का अग्रणी देश बन जाएगा।
बढ़ते भौतिकवाद, लड़के-लड़कियों में भेदभाव, आसमान छूती महत्वाकांक्षाओं और तनावपूर्ण पेशेवर जिंदगी ने मनुष्य को स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बना दिया है। पति-पत्नी की एक-दूसर से उम्मीदें बढ़ गई हैं। जब उन्हें लगता है कि उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हो रहीं तो वे धैर्य रखने व एक-दूसर को समझने की बजाय तलाक लेना बेहतर समझते हैं। अब प्यार और विवाह की परिभाषा बदल गई है। अधिकांश दंपती आपसी संबंधों की गरमाहट को भूल कर एक अनजानी खुशी की तलाश में भटक रहे हैं। कई बार तो विवाह के कुछ समय बाद ही पति-पत्नी के बीच मनमुटाव शुरू हो जाता है। एसे-एसे किस्से सामने आते हैं कि लगता है विवाह का मकसद पत्नी को नीचा दिखाना या फिर पैसा हड़पना था। पहले बात ढंक दी जाती थी, पर अब वह असंभव है। यही वजह है कि अब शादी के नाम पर पढ़ी-लिखी युवतियों के मन में अनजाना भय भी घर करने लगा है। परिचित और करीबी रिश्तेदार भी पहले की तरह रिश्ते कराने में कतराने लगे हैं। शादी दो परिवारों का संबंध न रहकर लेन-देन का व्यवसाय बन जाए और परस्पर प्रेम और विश्वास का स्थान शक और अहं ले ले तो हर चीज पैसे से तौली जाने लगती है और तब टूट बढ़ती है। यह स्वीकार करने की बजाय आज भी कुछ लोगों का मानना है कि महिलाओं के सशक्तिकरण के नाम पर ही परिवार यूं टूट रहे हैं और टकराव बढ़ रहा है।
तलाक के बढ़ते मामलों के लिए एक महत्वपूर्ण कारण है, महिलाओं में बढ़ती जागरुकता। जब तक नारी घर की चहारदीवारी में कैद थी, तब तक वो अपने आपको चौका-चूल्हा तथा पति-बच्चों तक ही सीमित मानती रही। पति के घर तथा आश्रय के बिना भी उसका कोई व्यक्तित्व हो सकता है, वह इससे अनजान ही थी। पति चाहे दुराचारी या अत्याचारी कैसा भी हो, उससे अलग होने की बात सुनकर भी उसे अपने लोक-परलोक बिगडऩे का भय घेर लेता था। शिक्षा के अभाव में बचपन से वो दादी-नानी तथा मां की इसी सीख को सुनती आ रही थी कि पति के घर में ही उसका स्वर्ग है तथा कुछ भी हो जाए, पति के घर से उसकी अर्थी ही बाहर निकले।
आर्थिक रूप से स्वतंत्रता ने नारी के आत्मविश्वास को बढ़ाया ही है। अब वह अपने पति को अपना मित्र तो मानने को तैयार है, लेकिन स्वामी नहीं। दूसरी ओर पुरुष के सोचने के ढंग अभी तक सामंतवादी हैं। पत्नी उसके लिए उसकी संपत्ति के ही समान है, वह अभी तक अपने अहम के कारण उसे अपने बराबरी का नहीं मान सकी है। फलस्वरूप जब दोनों के ही अहम टकराते हैं तो तलाक की नौबत आ ही जाती है।
इसके अलावा आर्थिक स्वतंत्रता की प्राप्ति तथा महंगाई की मार से बचने के लिए नारी को भी घर से निकलकर कार्य करने बाहर आना पड़ा, जिससे उस पर कार्य का बोझ और बढ़ा। ज्यादातर पति यह तो चाहते हैं कि पत्नी कमाकर लाये, किंतु घरेलू कार्यों में सहायता करने में उनका पुरुष जन्य अहम आड़े आता है। घर-बाहर दोनों ही जिम्मेदारियों से त्रस्त महिला तुनक मिजाज हो जाती है। कार्य के बोझ से बढ़ते तनावों को झेलती महिलाएं पति से तलाक ले लेना ही बेहतर समझती हैं। रोज-रोज की आपाधापी, लड़ाई-झगड़े आखिरकार तलाक के लिए अदालत तक आ पहुंचते हैं।
पारस्परिक समाज में प्रेम विवाह तेजी से बढ़ा। पारस्परिक आकर्षण के कारण हुए अधिकतर प्रेम विवाहों में स्थायित्व का अभाव होता है। बिन सोचे-समझे जल्दबाजी में किये जाने वाले प्रेम विवाह भी वैचारिक तथा सामाजिक विभिन्नताओं के कारण तलाक का कारण बन जाते हैं।
एकल परिवारों में पति पत्नी दोनों के नौकरीपेशा होने की वजह से एक-दूसरे के लिए समय की कमी, बढ़ती असहिष्णुता, अहं का टकराव और कई मामलों में विवाहेत्तर संबंध इसकी प्रमुख वजह हैं. कई मामलों में पति पत्नी के बीच बढ़ते मतभेदों में दूर रहने वाले परिजन और करीबी लोग भी आग में घी डालने का काम करते हैं.
पति पत्नी के कमाऊं होने की वजह से पत्नियां भी हर अहम फैसले में अपनी भागीदारी चाहती हैं. लेकिन पुरुष अपनी मानसिकता के चलते इस बात को अपने वर्चस्व और अधिकारों के अतिक्रमण के तौर पर लेते हैं. वे मानते हैं कि फैसले लेने का अधिकार सिर्फ उन्हें ही है. इसके अलावा रोजमर्रा के जीवन में बढ़ता तनाव भी पति पत्नी के बीच मतभेद बढ़ाता है।
डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद
स्वरचित व मौलिक रचना
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