"वटवृक्ष के समान है बुजुर्ग बोझ नहीं"
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वृद्धजन वटवृक्ष के समान हैं। इनकी छाया में रहने वाले लोग धूप, आंधी एवं अन्य विपत्तियों से बचे रहते हैं हमारे बड़े बुजुर्ग उस घने विशाल वट वृक्ष की तरह हैं , जो बस थोड़ी सी देखरेख या हमारे बिना कुछ किये भी हमें अपने प्यार दुलार और वात्सल्य की शीतल छाया और अनुभव के मीठे स्वादिष्ट फलों से हमारा जीवन भर देते है।उनके पास जीवन की सबसे बड़ी पूँजी होती है जीवन के अनुभव होते हैं।जिसकी हमें समय समय पर आवश्यकता पड़ती है।
जिस परिवार में बड़े बुजुर्गों का सम्मान नहीं होता उस परिवार में सुख, संतुष्टि और स्वाभिमान नहीं सकता। हमारे बड़े बुज़ुर्ग हमारा स्वाभिमान हैं, हमारी धरोहर हैं। उन्हें सहेजने की जरूरत है। यदि हम परिवार में स्थायी सुख, शांति और समृध्दि चाहते हैं तो परिवार में बुजुर्गों का सम्मान करें।
संयुक्त परिवार में बुजुर्गों की सदा आवश्यकता महसूस की जाती है। वरिष्ठजनों की जिम्मेदारी है कि वे अपने अनुभव का लाभ आने वाली पीढ़ी को आशीर्वाद के तौर पर दें। युवाओं की ऊर्जा और वरिष्ठजनों के अनुभव से ही समाज और देश समृद्ध होगा
घर में बुजुर्गों का होना बहुत ही जरूरी होता है।वे हमारे घर की शोभा होते हैं। उनकी छत्रछाया में पूरा परिवार स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है। इनके कारण घर में रिश्तेदारों का अक्सर आगमन होता है अन्यथा आज जब सब इतने व्यस्त हो गए हैं मेलजोल समाप्ति की ओर है।
घर के बच्चों को संस्कार देने का कार्य बुजुर्गों से अच्छा कोई नहीं करता है। समय-समय पर अपनी बहुमूल्य सलाह भी अपने बड़े होते हुए बच्चों को देते हैं। छोटे बच्चों को शिक्षित करने का कार्य भी वे अपने ऊपर ले लेते हैं।बच्चों को कहानी सुनाने का समय उनके माता-पिता के पास नहीं रहता ।यह भी बुजुर्गों का ही कार्य बन गया है।
घर के लोगों में यदि मनमुटाव हो गया हो तो यह बुजुर्ग ही हैं जो पुनः मेल मिलाप करा कर मामले को पूर्ववत कर देते हैं।समझाने का इनके पास अभूतपूर्व तरीका होता है जो कि आज की पीढ़ी के पास नहीं है।
आज का युवा वर्ग चाहे कितना भी स्मार्ट हो जाए परंतु उन्हें अपने घर के बड़े बुजुर्गों का आदर करना चाहिए और उनके जीवन के अनुभव से सीख लेनी चाहिए।
अच्छा होना व बिगड़ना ईश्वर की बातें हैं। किसी बात की कोई गारंटी नहीं होती। परंतु यह सत्य है कि वह लोग जिनके साथ उनके बड़े बुजुर्ग रहते हैं और जब ऐसे लोग अपनी यथा शक्ति उनके साथ यथोचित करते हैं मतलब सेवा करते हैं और उचित व्यवहार करते हैं तब उन्हें ईश्वर कृपा मिलती है।
बुजुर्गों को ईश्वर कृपा प्राप्त है तो सेवा करने वाली संतान मिलती हैं तथा जो बुजुर्गों की सेवा करते हैं उन्हें ईश्वर कृपा मिलती है। इससे चकरा मत जाइए।
आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में व्यक्ति को अपने लिए ही दो पल नहीं निकाल पाता है तो फिर अन्य जिम्मेदारियां कैसे पूरी करे। और यही सोच उसके व्यवहार और विचारों में शुष्कता लाती है जिसके कारण परिवार में और खासतौर से उसके माता - पिता से दूरियां बढ़तीं हैं। कुछ विशेष कारण न होते हुए भी दोनों पीढ़ियों के बीच एक अदृश्य दीवार सी खड़ी हो जाती है दोनों एक छत के नीचे रहते हैं प्रतिदिन एक दूसरे को देखते भी हैं मिलते भी हैं लेकिन फिर भी एक दूसरे से अपने विचारों का आदान प्रदान नहीं कर पाते और मैं इसको सकारात्मक दृष्टि से देखूं तो कहूँगा की चाहकर भी पर्याप्त समय नहीं दे पाते।
युवा पीढ़ी और बुजुर्गों के बीच दूरियाँ बढ़ने का एकमात्र कारण दोनों की सोच व समझ में तालमेल का अभाव है। दुनिया देख चुके अपने बड़े-बुजुर्गों को दरकिनार कर आजकल के युवा अपनी नई सोच से अपनी जिंदगी को सँवारना चाहते हैं। उनकी आजादी में रोक-टोक करने वाले बड़े-बुजुर्ग उन्हें नापसंद हैं। यही कारण है कि वे उन्हें अपने परिवार में देखना ही पसंद नहीं करते हैं।
युवा पीढ़ी की इस सोच के अनुसार बड़े-बुजुर्गों की जगह घर में नहीं बल्कि वृद्धाश्रमों में है। वहाँ उन्हें उनकी सोच के व हमउम्र लोग मिल जाएँगे, जो उनकी बातों को सुनेंगे और समझेंगे। वहाँ वे खुश रह सकते हैं परंतु ऐसा सोचने वाले युवाओं को क्या पता है कि हर माँ-बाप की खुशी अपने परिवार में और अपने बच्चों में होती है। उनसे दूर रहकर भला वो खुश कैसे रह सकते हैं?
परिवार में वटवृक्ष के समान समझे जाने वाले बड़े-बुजुर्ग आज परिवार में अपने ही अस्तित्व को तलाशते नजर आ रहे हैं। तिनका-तिनका जोड़कर अपने बच्चों के लिए आशियाना बनाने वाले ये पुरानी पीढ़ी के लोग अब खुद आशियाने की तलाश में दरबदर भटक रहे हैं। ऐसे में इनका ठिकाना बन रहे हैं वृद्धाश्रम, जहाँ इन्हें रहने को छत और खाने को भरपेट भोजन मिल रहा है।
बस यहाँ कमी है तो उस औलाद की, जिन्हें इन माँ-बाप ने अपना खून-पसीना एक करके पढ़ाया-लिखाया था परंतु आज उसी ने इन्हें दर-दर ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया है।
इसमें दोष हमारा नहीं है बल्कि उस पश्चिमी संस्कृति का दोष है, जिसका अंधा अनुसरण करने की होड़ में हम लगे हुए हैं। बगैर कुछ सोचे-समझे हम भी दूसरों की देखा-देखी एकल परिवार प्रणाली को अपनाकर अपनों से ही किनारा कर रहे हैं।
ऐसा करके हम अपने हाथों अपने बच्चों को उस प्यार, संस्कार, आशीर्वाद व स्पर्श से वंचित कर रहे हैं, जो उनकी जिंदगी को सँवार सकता है। याद रखिए किराए से भले ही प्यार मिल सकता है परंतु संस्कार, आशीर्वाद व दुआएँ नहीं। यह सब तो हमें माँ-बाप से ही मिलती हैं।
डॉ रेखा जैन शिकोहाबाद
स्वरचित व मौलिक अप्रकाशित रचना
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