स्वाद

एक शायर का गम

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rekha shishodia tomar
rekha shishodia tomar 24 Apr, 2020 | 1 min read

"राजू, कितने दिनों बाद मिला यार..,और बता कैसा है मेरे कॉलेज की हर महफ़िल की शान?, कैसी चल रही है तेरी शायरी?..कॉलेज बैग की तरह ऑफिस बैग में भी मिर्ज़ा ग़ालिब, वसीम बरेलवी, मोहसिन नक़वी की किताबें रखता है क्या?"

एक ही सांस में कितने सवाल पूछ डाले थे मैंने, जवाब में केवल एक मुस्कुराहट

कुछ बातों के बाद मैने पूछा"तू अपनी किताब निकालने वाला था ना?"

जवाब मिला"ज़रा पाने की चाहत में बहुत कुछ छूट जाता है,

नदी का साथ देता हूं, समंदर रूठ जाता है.

अहल-ए-दिल के वास्ते पैग़ाम हो कर रह गई

ज़िंदगी मजबूरियों का नाम हो कर रह गई"

"वाह वाह" मेरे मुँह से निकला

"मेरा नही है ये" वो फिर मुस्कुराया

"अरे! पर तु भी तो शायरी..?

तभी नाश्ते की प्लेट लिए उसकी पत्नी बाहर आई

"अरे भाईसाहब कुछ नही रखा इस शायरी वायरी में..एक धेले की कमाई नही..बिना पैसे कुछ नही होता..मैंने तो इनको बोल दिया परिवार के भविष्य की सोचो..ये मुशायरे छोड़ो..पता नही कहाँ कहाँ से न्यौते आने लगे थे"

मैंने राजू की तरफ देखा वो अब भी मुस्कुरा रहा था..गीली मुस्कान..उसने चाय का कप मेरी तरफ बढ़ाया।

मैंने एक घूँट भरा.. कुछ अजीब सा स्वाद है..उन्होंने मीठी आवाज के साथ काजू बर्फ़ी की प्लेट मेरी तरफ बढ़ाई"लीजिये भाईसाहब,चाय का मजा बढ़ जाएगा"

मैंने एक पीस मुँह में डाला, दूसरा घूँट लिया..ना..अब भी वही खारा स्वाद..

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