मर कर भी अमर है

राष्ट्रकवि

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prem bajaj
prem bajaj 24 Sep, 2021 | 1 min read

रामधारी दिनकर


स्वतंत्रता पूर्व विद्रोही कवि और स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रकवि माने जाने वाले, छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे।

23 सितंबर 1908 सिमरिया घाट बेगुसराय, जिला बिहार, भारत श्री रवि सिंह के घर जन्म लिया इस वीर रस के महान कवि ने। वह हिन्दी के प्रमुख लेखक, कवि और निबंधकार थे। जहां एक ओर उनकी कविताओं में ओज, विद्रोह, आक्रोश,और क्रांति की झलक है तो दूसरी ओर उनकी कविताओं में कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति भी है। दोनों प्रवृतियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरूक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में दिखाई देता है।

हालांकि उनके जन्म को लेकर भ्रांतियां हैं कुछ का मानना है कि उनका जन्म 24 सितंबर को हुआ। 

उन्होंने पटना विश्वविद्यालय से इतिहास राजनीति विज्ञान में बी.ए. किया। उन्होंने संस्कृत, बंगला, उर्दू और अंग्रेजी का गहन अध्ययन किया। बी.ए. करने के बाद कुछ समय वह एक विद्यालय में अध्यापक पद पर रहे। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब रजिस्ट्रार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया।

 1950 से 1952 तक मुजफ्फरपुर कालेज में हिन्दी के विभाध्यक्ष रहे। 1952 में भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया। 12 वर्ष तक संसद सदस्य रहे एवं 1965 से 1965 भागलपुर विश्वविद्यालय में उपकुलपति के पद पर कार्य किया उसके बाद 1965 से 1971 तक भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार बने। उन्हें पद्मविभूषण की उपाधि से अलंकृत किया गया। उनकी पुस्तक संस्कृत के चार अध्याय के लिए साहित्य अकादमी और उर्वशी के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए गए।

रामधारी दिनकर स्वभाव से सोम्य और मृदुभाषी थे लेकिन जब देश के हित-अहित की बात आती तो वो बेबाक टिप्पणी करने से नहीं कतराते थे। 

रामधारी दिनकर ने तीन लाईनें नेहरू के खिलाफ संसद में बोली थी, पूरे देश में भुचाल आ गया था, हालांकि राज्यसभा सदस्य के तौर पर दिनकर का चुनाव नेहरू ने ही किया था फिर भी नेहरू की नीतियों की खिलाफत करने से नहीं चूके। पंडित नेहरू और दिनकर के बीच विशेष संबंध थे फिर भी 1962 में चीन से हार जाने के बाद दिनकर ने संसद में इस कविता का पाठ किया जिससे तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू का सिर झुक गया।

  "रे रोक युद्धिष्ठिर को न यहां जाने दे उनको स्वर्गधीर,

 फिरा दे हमें गांडीव गदा लौटा दे हमें अर्जुन भीम वीर"

ऐसा नहीं कि चीन के मसले पर दिनकर ने नेहरू जी की आलोचना ही की बल्कि अपनी किताब लोकदेव नेहरू में उन्होंने बताया कि चीन के युद्ध के बाद नेहरू को अंदरूनी झटका लगा था। क्योंकि उन्हें लगा था कि उनकी दोस्ती के साथ लड़ा हुआ था। इस किताब में दिनकर जी लिखते है कि नेहरू जी की बीमारी का नाम फालिज या रक्तचाप नहीं बल्कि चीन का विश्वासघात है। चीनी आक्रमण का सदमा उन्हें ज़ोर से लगा था और एक चतुर पिता की तरह देश से छिपाते रहे, संसद में तो बहुत ज़ोर से बेशक वो कहते थे कि चीनी आक्रमण से हमारा तनिक भी अपमान नहीं हुआ, मगर अपमान के कड़वेपन को भीतर से जितना उन्होंने महसूस किया इतना शायद किसी ने भी नहीं किया । इसी किताब में दिनकर ने लिखा कि "मैं पंडित जी का भग्त था"

द्वापर युग की ऐतिहासिक घटना महाभारत पर आधारित उनके प्रबंध काव्य कुरूक्षेत्र को 100 सर्वश्रेष्ठ काव्यों में 74 वां स्थान मिला।

 24 अप्रैल 1974 को उनका निधन हुआ, मगर निधन के बाद भी वो अमर रहे, उन्होंने कविताओं, किस्सों के माध्यम से हर पीढ़ी को एक साथ जोड़ा। आज भी कहीं ना कहीं युवा रश्मिरथी और कुरूक्षेत्र का पाठ करते दिखाई दे जाते हैं।

 अपनी कविताओं, किस्सों, कहानियो के माध्यम से रामधारी दिनकर मर कर भी अमर हैं, वो अपनी लेखनी के माध्यम से वह सदा अमर रहेंगे।


प्रेम बजाज ©®

जगाधरी ( यमुनानगर)

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