मैं अक्सर चुप रहती हूं

औरतों की स्थति को उजागर करती एक कविता।

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Pragati tripathi
Pragati tripathi 01 Sep, 2020 | 1 min read



मैं अक्सर चुप रहती हूं

रिश्तों में जीवन बचाए रखने के लिए

जो न किया हो, वो इल्जाम सहती हूं

ताकि घर का माहौल न बिगड़े

हां मैं अक्सर चुप रहती हूं

औरतों को चुप रखना तो एक परंपरा है 

जो बचपन से ही उसके कोरे मस्तिष्क में भर दिया जाता है

छोटी-छोटी बातों को सह लेना ही समझदारी होती है

तुम लड़की हो, तुम्हें पराए घर जाना है

सहनशील बनो, तभी घर - गृहस्थी संभाल पाओगी

हां इसलिए भी मैं अक्सर चुप रहती हूं

अपने शौक मारकर जीती हूं ताकि दूसरों के शौक को जिंदगी दे सकूं

मां भी तो अपना मन मारकर ही जीती थी

कभी खुलकर नहीं वो हंसती थी

पुरानी साड़ी से ही तीज त्यौहार मना लेती थी

फिर भी किसी से कोई शिकवा - शिकायत ना करती थी

हां वो भी तो अक्सर चुप ही रहती थी

चाची को अक्सर दादी मुंहफट कहती थी

क्योंकि वो अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती थी

जिंदगी भर बुरी बनकर रही क्योंकि परंपरा के खिलाफ लड़ी वो

पर अकेली कितना लड़ती वो, थक गई अपनों से लड़ते हुए

हां वो अब सदा के लिए चुप हो गई थी

अब घर का माहौल शांत हो गया था, ऐसा दादी कहती थी

मैं भी अक्सर चुप ही रहती हूं, अपने अरमानों का गला घोंटती हूं

दुःख - दर्द पी जाती हूं, सबके सपने पूरे हो इसलिए

दिन - रात रसोई में जलती हूं।

सबका पूरा ध्यान रखती हूं, अच्छी बहू होने का तमगा मिला है मुझे


लेकिन इसमें मैं नया क्या करती हूं? सभी लड़कियां ऐसा ही तो करती है।

हां शायद इसीलिए मैं अक्सर चुप रहती हूं......


-प्रगति त्रिपाठी

 (बेंगलौर)

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