"जोरू का गुलाम"

पति हमेशा जोरू का गुलाम नहीं होता।घर के काम करने में शर्म कैसी।

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Poonam chourey upadhyay
Poonam chourey upadhyay 07 Sep, 2020 | 1 min read
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"अरे सुनो जल्दी से कुछ नाश्ता बना दो,बहुत दिनों से ऑफिस के चक्कर में नाश्ता नहीं हो पाता,और आज तो संडे है कुछ स्पेशल सा बना दो" नितिन ने निशी को आवाज़ लगाई।

"और हां,आज क्या क्या काम निपटाने है, संडे ही मिलता है घर के कामों के लिए,बता देना"-नितिन बोला।

"पहले आप नाश्ता कर लो,फिर हम साथ मिलकर घर के थोड़े काम भी कर लेंगे"-निशी बोली।

"नहीं नहीं,माँ बाबूजी का तो तुम्हें पता है उनको सीधे खाना चाहिए होता है,वो दोनों नाश्ता भी नहीं करते है,तुम किचिन का देख लो, मैं दूसरे काम कर देता हूं"-नितिन बोला

ऐसा बोलकर नितिन बाथरूम साफ करने चला गया।नितिन को एक संडे को ही टाइम मिलता था।वो निशी के साथ सब काम में मदद करवा देता था।

"अब इतने बुरे दिन आ गए तेरे, बाथरूम भी अब तू ही साफ करेगा क्या"। जानबूझकर संडे की रास्ता देखती है बहु।उसको पता है ना कि तू कर देगा ये सब।सुधाजी अपने बेटे नितिन से बोली।

"उसमे बुराई क्या है माँ"।घर के काम करने में शरम कैसी और सब निशी ही करे ऐसा तो नहीं है।वो भी पूरे हफ्ते सब काम करती ही है।और कहीं लिखा भी तो नहीं है कि ये काम इसका है या उसका है।ऐसा बोलकर नितिन बाथरूम साफ करने में लग गया।

"हां हां बन जा जोरू का गुलाम"एक दिन ऐसा आएगा सब तेरे से ही करवाएगी।हमारा क्या है आज है कल नही रहेंगे।और सिर पर बैठा के रख बहु को,हमें क्या।हम तो तेरी भलाई के लिए ही बोलते हैं।सुधाजी गुस्से में बोली।

नितिन को बहुत बुरा लगता था।उसको अपनी माँ की आदत पता थी पर बोलता नहीं था।वो सोचता था कि माँ को ये समझ क्यों नही आता कि घर के काम कोई भी करें उसमें परेशानी क्या है।

ऐसे ही दिन निकल गया।रात हो गयी। सब साथ मे बैठकर खाना खा रहे थे।नितिन सबकी थाली परोसने में लग गया।बीच बीच मे सबसे पूछता भी जाता कि खाने में क्या चाहिए।

निशी और नितिन में बहुत प्यार था। वह दोनों हर काम साथ साथ करते और नितिन छुट्टी के दिन पूरा फैमिली को ही टाइम देता था। पर सुधाजी को ये भी बुरा लगता कि ये क्यों बहु को इतना मान सम्मान देता है।

नितिन सिर्फ निशी के लिए ही नहीं,माँ और बाबुजी की भी बहुत सेवा करता था।उसे अच्छा लगता था सबकी मदद करना।

एक बार निशी को अपने किसी कारणवश मायके जाना पड़ा।अब सुधाजी को थोड़े दिन तो घर के सब काम करना पड़ रहा था।

एक दिन छुट्टी का ही दिन था।नितिन बोला माँ जल्दी से कुछ अच्छा बना दो नाश्ते में।"मुझसे अब बुढ़ापे में खाना ही नहीं बनता, तू नाश्ता की बात करने लगा" हम लोगों के साथ तू भी सीधे खाना ही खा लेना।

ठीक है माँ, आज तो संडे है आपकी कोई मदद कर दूँ।नितिन बोला।

"अरे हाँ बहुत कपड़े धोने है और बाथरूम भी तो साफ करना है ना तुझे" सुधाजी बोली।

"अरे नहीं नहीं माँ,आज मैं कुछ नहीं करूँगा।वो तो मैं निशी का गुलाम हूं।और निशी तो अपने मायके गयी हैं।आपका तो बेटा हूं मैं।आपकी हेल्प तो आज बाबुजी कर देंगे।पर मैं उन्हें जोरू का गुलाम नहीं कहूंगा।नितिन ने चुटकी लेते हुए अपनी माँ सुधाजी से कहा।

सुधाजी को भी हँसी आ गयी।उन्होंने नितिन को गले लगा लिया।वह बोली अब मुझे समझ आ रहा हैं कि तू बहु की मदद क्यों करता है।सच में घर में बहुत सारे काम होते है।तू सही कहता था कि घर के कामों पर किसी का नाम नहीं लिखा है।जब सबके कपड़े धुलते है,बाथरूम सब यूज़ करते है तो ये काम भी बहु ही करेगी ऐसा क्यों?

अब निशी के साथ जब नितिन काम करवाता है तो सुधाजी को अच्छा लगता है कि उनका बेटा इतना समझदार है कि वो एक औरत की तकलीफ को दिल से महसूस करता है।

हमेशा एक औरत की तकलीफ कोई समझे या न समझे पर उसके पति को समझना चाहिए।

दोस्तों आपको मेरी ये कहानी कैसी लगी। कृपया कंमेंट करके बताएं।

@पूनम चौरे उपाध्याय

मौलिक, स्वरचित

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