पीली टीशर्ट!

Memories

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Nidhi Shrivastava
Nidhi Shrivastava 09 Jun, 2020 | 1 min read

17 • 05 • 2020


पापा ने मां से कहा कि कुछ पुराने कपड़े हो तो निकाल दो, मां को इस बात में कुछ विशेष दिलचस्पी न आयी क्योंकि उन्हें आज भी पुराने कपड़ों के बदले कुछ बर्तन ले लेना ज़्यादा सहज लगता है या फिर घर में काम करने वाली बाई को दे देना। पर इस बार बात कुछ और थी, पापा ने बताया कि सोसाइटी के रहवासी कपड़े और जूते चप्पल इकट्ठे कर हाईवे से गुज़रने वाले मज़दूर भाई बहनों को देने जाने वाले हैं।


मां की ही तरह पापा ने मुझ से भी यह बात कही। मैने भी जा कर अपनी अलमारी खोली, जो हमेशा की तरह बिखरी हुई थी। बहुत देर तक तो मैं अलमारी के सामने स्टूल लगाए बैठी रही, यह सोचती रही कि इतनी मेहनत कौन करे? क्योंकि कपड़े छांटने का मतलब था पूरी अलमारी वापस जमाना। कुछ 10-15 मिनट सोचने के बाद ये काम मैने अपने कंधों पर लिया।


मैने जब सारे कपड़े बिखेरे, तो उन कपड़ों में एक टीशर्ट गिरी, पीली कलर की टीशर्ट, उस टीशर्ट पर प्रैस की लकीरें इतनी गहरी थी कि अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं था कि उसका इस्तेमाल हुए एक अरसा बीत गया है।


दरअसल, वो पीली टीशर्ट, छोटू की मम्मी लाई थी मेरे लिए जबलपुर से। छोटू, कोटा में मेरे बगल वाले कमरे में रहती थी। जबलपुर से मेरा पारिवारिक संबंध होने के कारण वो कुछ ज़्यादा ही करीब थी। कद काठी में ज़रा छोटी थी, वो उम्र में भी हमसे छोटी ही थी तो छोटू नाम सही रहा, हमारी कोचिंग का समय अलग हुआ करता था इसके चलते दिन भर तो हम लोग मिल नहीं पाते थे पर रोज रात का खाना साथ खाया करते थे, छोटू रोज़ अपनी पानी की बोतल लिए मेरा गेट खटखटाती, दीदी चलो भूख लगी है, संडे को तो कुछ ज़्यादा ही जल्दी क्योंकि संडे स्पेशल पर सब लोग जो टूट पड़ते थे और लेट होने पर कुछ हाथ ना लगता। यही नहीं छोटू को तो बिना शक्कर वाला दूध ही अच्छा लगता था और चिंता, चिंता तो पूरे कोटा के बच्चों की वो अकेले ही कर लेती थी।


हां, तो छोटू की मम्मी मेरे और खुशबू(छोटू की रूममेट) के लिए अपने साथ जबलपुर से टीशर्ट लाई थी, यूं तो कितनी ही बार मुझे कोई ना कोई किसी तरह के कपड़े तोहफे में दे दिया करता था पर ये अलग था क्योंकि पहली बार दोस्त की मम्मी मेरे लिए कुछ लाई थी।


जब वो टीशर्ट लिए मैं बैठी थी, तब कोटा की वो सारी यादें आंखो के सामने आगई। वो सारे प्यारे दोस्त, दरअसल दोस्त नहीं परिवार, क्योंकि जब 17-18 साल की उम्र में आप परिवार से दूर रहते हो, तो वो जो हर पल आपके साथ रहते हैं, वो परिवार ही बन जाते हैं।


मैं अपने ख्यालों में ही थी कि पापा ने आवाज़ लगाई, बेटा जल्दी करो, ऑटो 1 बजे निकल जाएगा। मैं वो टीशर्ट वापस अलमारी में रखने को जैसे ही हुई वैसे ही मैने मां को देखा, मां अपना पसंदीदा आसमानी रंग का सूट निकाल लाई थी, जो उन्हें बेहद ही पसंद था। पूछने पर कहने लगीं कि इसका कपड़ा बहुत अच्छा है, किसी के पहनने में नहीं आया तो मज़दूर इसका गमछा बना सकते है। जो कम से कम गर्मी से बचा लेगा। इतना बोल दोनों अपने अपने कामों में लग गए।


मेरे हाथ में अब भी वो टीशर्ट थी, और मन में छोटू की छवि, छोटू से मिले एक ज़माना हो गया, और आप जान कर हैरान होंगे कि अब छोटू मुझसे महज 30 कि.मी. दूर बैरागढ़ के कॉलेज में ही है पर पिछले दो साल में उस से मिलने के लिए मुझे एक दिन की भी फुरसत नहीं मिली।


ना जाने हम ऐसी कितनी ही चीज़ों को सहेज कर रखते हैं, पर उससे जुड़े व्यक्ति को सहेज नहीं पाते।

ज़िन्दगी इतनी रफ्तार से आगे बढ़ती है कि पुराने लोग कही बिछड़ से जाते हैं। हां, कहने को तो हम इंस्टाग्राम, फेसबुक पर उन से जुड़े ही रहते हैं पर वास्तव में तो शायद साल में एक बार बर्थडे पर भी कॉल करने का समय नहीं निकाल पाते।


पर क्या कभी सोचा है, कि यदि ये लोग नहीं होते तो ज़िन्दगी का वो "फेज" कैसे गुजरता? वो सभी लोग, जिन से मैं रोज़ बात नहीं कर पाती, आज उन सभी को शुक्रिया करना चाहती हूं कि आप थे, जब मुझे आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी। 

इसमें वे सब है, जो ज़िन्दगी के अलग अलग फेज में मेरे साथ थे। 


यह सब जब हो रहा था, तब ये सारी बातें मेरे दिमाग में नीलेश मिश्रा की आवाज़ में गूंज रही थी। आज से पहले अपने जज़्बात कभी कागज पर उतारे नहीं थे। दीदी कहती है, मैं अच्छा लिख लेती हूं, अपने हर पोस्ट का कैप्शन मुझसे ही लिखवाती है। 


आपको क्या लगता है? 


और वो पीली टीशर्ट, वो मैने दे दी, पर वो सारी यादें, वो सारे एहसास सहेज कर रख लिए। वो टीशर्ट शायद मेरे लिए एक जज़्बात ही थी पर किसी के लिए इस परेशानी की घड़ी में खुशी हो सकती है, शायद एक सहारा।

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