मल्लिका उपन्यास की एक समीक्षा

हिन्दी के प्रथम उपन्यासकार मल्लिका पर लिखी पुस्तक की एक समीक्षा

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Moumita Bagchi
Moumita Bagchi 20 Oct, 2020 | 1 min read

"मल्लिका" उपन्यास की एक समीक्षा

उपन्यासकार: मनीषा कुलश्रेष्ठ

प्रकाशक: राजपाल

मूल्य: 235रु मात्र


मनीषा जी की लेखनी से सर्वप्रथम परिचय प्रतिलिपि फेलीशीप के दौरान तब हुई थी जब उनकी कहानी," केयर ऑफ स्वेत घाटी" हमें पढ़ने के लिए कहा गया था। कहानी पढ़ने के बाद जब उसके शीर्षक पर गौर किया तो मनीषा जी की मनीषा और लेखन की गहराई से साक्षात्कार हुआ। उसी दिन से हम उनके लेखन के जबरदस्त फैन हो गए थे।


कुछ दिन पहले सुप्रिया जी ने " मल्लिका" हमें भेंटस्वरूप दी। पुस्तक के आवरण पर शीर्षक के ठीक नीचे लिखी यह पंक्ति जब देखी -- " भारतेन्दु हरिशचंद्र की प्रेमिका, मल्लिका के जीवन पर आधारित उपन्यास"-- इतना देखने के बाद और मुझसे रहा न गया था-- तुरंत खोलकर पढ़ने लगी। कोरोना और क्वेरेन्टाइन दोनों ही चिंताओं को लगभग ताक पर रखकर।


जिस किसी ने भी" हिन्दी साहित्य का इतिहास" पढ़ा है-- वह भारतेन्दु हरिशचंद्र ज्यू से अपरिचित रह नहीं सकता है। हिन्दी खड़ीबोली को स्थापित करने वाले, नवजागरण का बिगुल फूँकनेवाले--- लेख, आख्यायिका, नाटक, व्यंग्य, पत्रकारिता जैसी न जाने कितनी असंख्य विधाओं का सर्वप्रथम प्रयोग हिन्दी में करने वाले-- जलसा, महफील आदि का आयोजन कर हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार करने वाले एवं इस कार्य हेतु पानी-सा द्रव्य बहाने वाले बहुमुखी प्रतिभा के धनी भारतेन्दुजी का व्यक्तित्व हिन्दी साहित्येतिहास के गगन में प्रज्वलित है-- जिसका छटा आज भी अम्लान है। परंतु उनका निजी जीवन कैसा था इसके बारे में पोथियों में बहुत कम लिखा हुआ है। यह पुस्तक हमें उस काल -ख॔ड में टाइम ट्रैवेल कराता है।


हिन्दी में पहला उपन्यास किसने लिखा-- इस विषय पर काफी मतभेद है। कुछ लोग लाला श्रीनिवासदास के " परीक्षागुरु" को हिन्दी का प्रथम उपन्यास मानते हैं, तो कहीं- कहीं क्षीण रूप में ही सही-- किसी बंगमहिला द्वारा रचित  " दुलाईवाली " का भी उल्लेख मिलता है। परंतु उसके बारे में इससे ज्यादा कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। यह सर्वविदित है कि " उपन्यास" ( अंग्रेजी में novel) की विधा अंग्रेजों के साथ ही आई थी-- अर्थात भारतीय साहित्य मूलतः काव्यात्मक रहा है-- उनमें गद्य-रचनाएँ आधुनिक काल की देन है, यानी कि अंग्रेजों के आगमन के बाद से इस पर लिखना आरंभ हुआ।


बंगला में सर्वप्रथम उपन्यास लिखा गया था-- बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय की " दुर्गेशनंदिनी" को पहला भारतीय उपन्यास माना जाता है। ये वही बंकिमचंद्र हैं-- जिनका " वंदे मातरम" इनके उपन्यास "आनंदमठ" से निकलकर क्रांतिकारियों का मूल- मंत्र होने का साथ- साथ आज भारत का" राष्ट्रगीत" के रूप में पदस्थापित है।


"मल्लिका" को उपन्यासकार ने इन्हीं बंकिमचंद्र की भगिनी के रूप में दर्शाया है, जिसके बारे में उपन्यासकार ने भूमिका में ही स्पष्ट कर दी है--" मल्लिका की कथा गल्प होते हुए भी ऐसे संपूर्ण व्यक्ति की कहानी है जो हाड़- मांस से बना, किन्हीं बीते वक्तों में जीता हुआ, साँस लेता था। उसके होने के अल्प ही सही, ओझल ही सही मगर प्रमाण हैं। वे प्रमाण इतने क्षीण हैं कि वह किसी महानतम की छाया का व्यंग्य मात्र बन कर रह जाती है।"


आगे हमें ऐतिहासिक तथ्यों से रूबरू कराती हुई उपन्यासकार लिखती हैं--- " बहुत वर्ष हुए कथादेश में ( जुलाई2007) में भारतेन्दु की प्रेमिका मल्लिका पर लेख और उनके उपन्यास "कुमुदिनी" के अंश छपे थे।" आगे वे यह भी जानकारी देती हैं--


" मल्लिका जो बांग्ला उपन्यास के अनुवाद के बहाने, तीनों उपन्यासों को भारतेन्दु के जीवन में लाई। स्वयं मौलिक उपन्यास लिखे। जी हाँ, परीक्षागुरु उपन्यास से पहले, किंतु उसे हिन्दी के कथा साहित्य में " प्रथम" उपन्यास मानना तो दूर एकदम गोल ही कर दिया।"


इन परिस्थितियों में मल्लिका पर शोध करके, प्राप्त तथ्यों के आधार पर मल्लिका के न केवल चरित्र का संगठन उपन्यासकार ने किया है-- बल्कि उसके संपूर्ण जीवनकाल के विशेष अंश को दर्शाना न केवल काबिलेतारीफ हैं, बल्कि यह पुस्तक इस विषय में एक "मिल का पत्थर "भी साबित होता है। स्वयं उपन्यासकार के शब्दों में--

"वह तो अपनी कहानी कहे बिना ही चली गई-- उसकी अदृश्य वायवीय कहानी को मैंने वहन किया है तो मैं बिना कहे कैसे चली जाऊं?"



"मल्लिका" की भाषा सर्वथा युगानुरूप है। पात्र- योजना, घटनावलियों का वर्णन, संवाद एवं भाषा काल- खंडानुसार एवं सर्वथा पात्रानुकूल है। भाषा में उस जमाने के शब्द और शैली दोनों के ही दर्शन हमें मिल जाते हैं। जगह- जगह पर बांगला और ब्रजभाषा के काव्यों ( ज्ञात हो कि भारतेन्दु- काल में काव्य की भाषा ब्रज ही थी। आगे चलकर द्विवेदी- युग में काव्य के लिए खड़ी- बोली का प्रयोग शुरू किया गया था।)

मल्लिका एवं अन्य बंगाली पात्रों के संवादों में जहाँ - तहाँ बांग्ला का प्रयोग किया गया है ( यद्यपि वे सर्वदा त्रुटिहीन नहीं हैं) जो कि अपने आपमें एक अनूठा प्रयोग है।


अंत में यह कहा जा सकता है कि उपन्यासकार अपने इस उपन्यास के माध्यम से मल्लिका का अत्यंत ही सफल चित्रण करके उसे विस्मृति के अंधकार से निकालकर सत्य के आलोक में लाकर खड़ा करने में बहुत हद तक सफल हो पाई हैं। इसके लिए उन्हें हृदयशः बधाई एवं कोटि- कोटि धन्यवाद🙏

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