गुलाम

यह कहानी बताती है कि बच्चों को उनका बचपन जीने दें, बच्चे रोबोट नहीं हैं।

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Sunita Pawar
Sunita Pawar 28 Dec, 2019 | 1 min read

"सुनो रवि...कल राहुल के स्कूल जाना है..अध्यापिका ने बुलाया है..न जाने क्या कर दिया है" लता ने रवि से कहा"..!

आज अध्यापिका जी ने जो बताया उसे सुन दोनों हैरान हो गये.. "ये क्या कह रही हैं मैम..राहुल ने स्कूल से भागने की कोशिश की..अपने सहपाठियों के साथ उसका बर्ताव अच्छा नही है.."!

"हाँ..हमारी काउंसलर से उसकी बात हुई..तो पता चला की राहुल का मानसिक संतुलन अस्त-व्यस्त हो गया है..!..वो कुछ यूँ कह रहा था.."(मुझे..अभी सोना है..अभी नहीं पढना है...हाथों में दर्द है..मुझे नही लिखना है...मुझे दोस्तों के साथ खेलना है....मुझे गेंद को उछाल के खेलना है...खाते खाते मैं पाठ याद नही कर सकता...मुझे रोना आता है तो कोई रोने नही देता...)"..न जाने क्या क्या ..

आज निशा राहुल के लिए बनाये अपने हर नियम को याद कर रही थी..5 बजते ही वो राहुल को जगा देती थी चाहे वो इतवार हो या कोई त्यौहार..वो लाख कहता था आज तो सोने दो..पर वो नही मानती...दोस्तों में भी प्रतिष्ठा ढूढती थी वो...परीक्षा में उसके पूरे नंबर आयें इसलिए वो उसको खाते-खाते भी पाठ याद करवाती थी...अपने मन के खेल कहाँ खेल पाता था वो..खेल में भी कोच सर पर सवार रहता...बच्चों के परेशान करने की बात को बताते हुए जब वो रोता तो कहा जाता "लड़के हो कर रो रहे हो..शर्म नहीं आती क्या"....उसके मन की सुनने का वक्त कहाँ था किसी के पास..! रवि भी दफ्तर से थके-हारे आते...बस हाँ-हूँ में बात खत्म कर बेटे के हाथ में थमा देते मोबाइल या लैपटॉप..!

निशा के आंसू रुकने का नाम नही ले रहे थे..अपने ही बेटे को उसने अपनी झूठी प्रतिष्ठा का "गुलाम" जो बना लिया था.!

©सुनीता पवार

©सुनीता पवार

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Sunita Pawar

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