जी रहा हूँ पर ज़िंदा कहाँ हूँ..!

एक पति की पीड़ा।

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Manisha Dubey
Manisha Dubey 17 Feb, 2020 | 1 min read

महसूस करता हूँ तुम्हें, तुम्हारी रंगीन साड़ियों में

ओढ़ लेता हूँ कभी कभार उन्हें, लिपटा कर खुद से

इस एहसास में कि तुम लिपटी हो मुझसे जैसे

खनका लेता हूँ चूड़ियाँ तुम्हारी जब याद तुम बेइंतहा आती हो

हर खनक आती मुझ तक, जैसे रुह तक समा तुम जाती हो। 

कानों में वक्त बेवक्त गूँज जाती है तुम्हारी पायलों की छन छन

आ रही हो तुम कहीं से सोचता यही मेरा मन

दिखती हो दूर से तुम आती हुई पास मेरे

पर हो जाती हो ओझल करीब मेरे आते आते

चंद बूँदे आँखों से गिर जाते हैं ओझल होते हुए तुम्हें नहीं देख पाते हैं

कोई नही डाँटता मुझे तुम्हारी तरह मेरी बुरी आदतों पर

लेकिन नहीं छोड़ता गीला तौलिया मैं अब कभी बिस्तर पर

जूते भी इक किनारे बराबर से मैं रखता हूँ

पर सच कहूँ तुम्हारी डाँट को याद बहुत मैं करता हूँ

रोटियाँ भी आड़ी टेढ़ी मैं खुद ही बनाया करता हूँ

एक थाली रोज बगल में तुम्हारी लगाया करता हूँ

एक निवाला मेरा एक तुम्हारे नाम का खाया करता हूँ

वो स्वाद नहीं हाथों का तुम्हारे पर साथ तुम्हारे खाता हूँ

अब नहीं आती रसोई से बरतनों की खटर पटर

कभी इसी आवाज पर खी़झता था मैं चुप हूँ आज मगर

किससे पूछूँ कि आज खाने में क्या बना रही हो

जब भी पूछता तुम कहती रुको मैं अभी आ रही हूँ

रुका हूँ अरसे से जाने कितनी घड़ियाँ बीत गयी

जानता हूँ तुम नहीं आओगी फिर भी आस बनी रही

रोज तुम्हें पति पत्नी के किस्से सुनाकर हँसाया करता था

जो पति रहता बिन पत्नी उसे नसीब वाला बताया करता था

याद है मुझे तुम इस बात पर बहुत चिढ़ जाया करती थी

खफ़ा होकर मुझसे बच्चों सा मुँह फुलाया करती थी

तब मैं बहुत हँसता था सुनो पर आज बहुत मैं रोता हूँ

जी तो रहा हूँ तुम बिन पर देखो ना कहाँ मैं ज़िंदा हूँ।

©®मनीषा दुबे मुक्ता

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