दबी हुई गूंज

औरतों के प्रति हो रहे परदे के पीछे के शोषण को इंगित करती रचना

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Kusum Pareek
Kusum Pareek 18 Mar, 2020 | 1 min read

"गूँज"

जब से मेरी जिठानी की मृत्यु हुई है ,सास ने पीछे वाले बाड़े में जहां बकरियाँ बंधी रहती हैं,वहां की सफाई का ज़िम्मा मुझे दे दिया,लेकिन मैं जब भी उधर जाती ,तब दो घूरती हुई आँखे मुझे ऐसे चुभती हुई महसूस होती ," जैसे कि मेरे जिस्म को अंदर तक चीर कर निकल रही हों ।"

ऐसा नहीं है कि वे आँखे घर में मेरा पीछा नहीं करती ,लेकिन वहाँ मेरे सुरक्षित रहने के कई कारण ,आवरण का काम करते ।

हमेशा की तरह आज भी मैं अपना काम जल्दी निपटा कर जाना चाहती थी ,परन्तु सासु मां ने आज लकड़ियां भी मंगवाई थी जिससे देर भी लग सकती है व अंधेरा होने का भी भय था ।

किसी तरह मैंने ,बकरी के बाड़े की सफाई की व लकड़ियों के गट्ठे को उठाकर जाने लगी ,अचानक मेरे पैरों में एक मेमने का बच्चा आ गया ,जो में ,में करता हुआ मुझसे लिपट गया ।

मैंने देखा कि वहीं पर एक कुत्ता खड़ा है ,जो लपलपाती नज़रों से उसे अपना शिकार बनाने की फ़िराक में है ।

तब तक गट्ठर नीचे पटका जा चुका था ,मेमने को गोदी में लेते हुए स्वत: ही मेरे कदम बकरियों के बाड़े की तरफ वापिस मुड़ गए,जहाँ उसे उसकी मां के पास सुरक्षित छोड़ सकूँ ,उसे बकरियों के झुंड में छोड़ कर,मैंने एक लट्ठ उठाया व साहस के साथ कुत्ते पर दे मारा, वह कोय-कोय करता जा चुका था ।

लेकिन एक और कुत्ता था जो अपनी हैवानियत से मेरी तरफ जीभ लपलपा रहा था ।

वह मुझ पर झपटना ही चाहता था परन्तु बिना कोई मौका दिए , लकड़ी काटने वाली कुल्हाड़ी उसके हाथ को काट चुकी थी ।

इस कुत्ते की तो कोय-कोय करने की भी औकात नहीं बची थी ।

कुसुम पारीक

मौलिक ,स्वरचित

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