'मुस्कान के मरहम से नासूरों को सजाती हूँ"
सुकून को संभालना आसान नहीं बड़े नाज़ों से पालती हूँ, ज़ख़्मों के दर्द को नज़र अंदाज़ करते प्यार से पुचकारती हूँ..
जब प्रतित होती है ज़िंदगी की चुनौतियां दम ब दम, तब खंगालती हूँ हौसलों का दामन और मुस्कान के मरहम से नासूरों को सजाती हूँ..
मेरे विचारों की व्यंजनाएँ मुखर है कल्पित भय पर कोहराम नहीं करती न खुशियों के आगमन पर तांडव, निश्चल है मन की धरा बस आत्म निरिक्षण करती हूँ..
मवाद से भरी उम्र की हाट पर मौन की किरणें मल कर हर तमाशा देखती हूँ, सफ़र आसान करते आँखें मूँद लेती हूँ..
हारता है धैर्य का बवंडर तब चिट्टा नहीं देती झूठ का एहसासों को, हकीकत का सामना करते हर घाव का स्वीकार कर लेती हूँ..
स्वप्न के टूटने पर मातम कौन मनाए एक टूटता है तो दूसरे की बुनियाद बुन लेती हूँ , कड़वी है बड़ी कड़वी ज़िंदगी की ड़ली जीभ को वश में रखते हर जंग जीतती हूँ ..
न कृष्ण सी कपटी बन पाई न सीता सी धैर्यवान, महज़ उर्मिला सी सहते बन गई शक्ति का सीधा पर्याय तभी ज़िंदगी को रास आया मेरा अभिमान..
कोई कवच कहाँ कर्ण सा बेचारगी की बयार से जूझते जीना है, न रखते जज़बा जिगर के भीतर साहब तो कब के मर गए होते..
पालती हूँ नखरों को राजकुमारी सा
मस्त मौला सी जीते ज़िंदगी की हर साज़िश को बखूबी मात देती हूँ तब कहीं जाकर सुकून की नींद सोती हूँ..
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
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