Titleमायाजाल

मर्द की मायाजाल से गिरी औरत

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Bhavna Thaker
Bhavna Thaker 02 Oct, 2020 | 1 min read

कभी खूबसूरती से रचे हुए मायाजाल के कैनवास का हिस्सा थी वो

आज वो पराजित होते लुढ़क गई है उसके नये इन्द्रधनुषी पटल पर अखर रही थी ये पुरानी काया।


यकीन के टीले पर ठहरी थी आज तक, 

बेरुख़ी की बौछार में नहाते उसे महसूस हो रहा है उसकी ज़िंदगी से ख़ारिज कर दी गई है, एक रंग उड़ी तस्वीर की तरह दीवार से उतार दी गई है।

 

कभी उस कारीगर ने उसकी त्वचा की परत पर असंख्य रंगों से प्यार लिखा था, आज उधेड़ कर हर रंगों पर एक नया रंग चढ़ा लिया है।

 

कब धीरे-धीरे दरार बनी और कब दरारो में सिलन ने जगह ले ली पता ही नहीं चला, वो मग्न थी उसके पोते गये हर रंग को सँवारने में कौन सा रंग रूठ गया पता ही नहीं चला।


कैनवास से फिसलती कब फ़र्श पर कालीन सी बिछ गई पता ही नहीं चला

थी कभी वो भी उस सुंदर कैनवास का हिस्सा जिसकी कामना वो पागलों की तरह करता था।


अब मृत कृति पर नफ़रत के फूल चढ़ते है ना कोई रंग है ना सुगंध है, कोरे धवल कैनवास को तकते ओंधे मुँह पड़ी है

ऐतबार की मारी आज खुद पर शर्मिंदा है।

(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु



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