पुरुष भी रो सकता है(कविता)

पुरुष को भी दुःख में पीड़ा होती है

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स्वरचित कविता-

शीर्षक-" पुरुष भी रो सकता है"


किसने कहा सृष्टि में केवल नारी की आंखों में पानी -

युगों युगों से चली आ रही जाने क्यों यह अजब कहानी ?

माना पुरुष कठोर गंभीर फिर भी उसको होती पीर -

जब भी गम आता है पास रहे शांत न होए अधीर,

कोई अपना खो जाए जब टूटे सपना लुट जाए सब-

पिता छिपा अश्कों को सोचे-असमय ही रुठे क्यों रब?

सुख का सबब छीन लेता है दु:ख देता जग का सर्जक

जार-जार रोता है पालक दिखें न अश्रु ,आर्द्र पलक

असह्य दुखों की झंझा झेले कष्टों के पर्वत को ठेले

देख सहिष्णु नर की पीड़ा धरती सिसके रोए फलक

दिल पर पत्थर रखकर प्रभु ने सीता जी को त्यागा होगा

फूट-फूट कर रोए होंगे, कैसा समय अभागा होगा?

फिर भी कोई जान न पाया दु:खी राम की पीड़ा को

इतिहास दोहराता अब भी राजकाज की क्रीड़ा को

पुरुष रुदन में आंखें हरदम करतीं रहतीं मौनालाप

गहरा सदमा लगे उन्हें भी सहती रहती हैं संताप

राधा से हो विलग कृष्ण भी व्याकुल होंगे नहीं जताया

गीता में जीवन जीने का कर्मक्षेत्र सदमार्ग दिखाया

महा तपस्वी भोले शिव भी हिमगिरि पर ही डटे रहे

आंधी,वर्षा,आतप,सर्दी सहकर गम से सटे रहे

हवन हो गए कितने जीवन कोरोना के कठिन काल में 

हर घर का मालिक चिंतित था फंसे हुए थे सभी जाल में

फिर भी हिम्मत ना हारी और साथ दिया नर ने नियति का

नई कलम से लिख ही डाला सौभाग्य जगत के उच्च भाल में

सहनशील होता है नर नहीं बहाता अश्रु-लहर

अंतर्मन में गुपचुप रोता, गम सह लेता आठ पहर 

 किसने कहीं बात यह मिथ्या, दर्द मर्द को कभी न होता

कष्ट आए जब परिवार पर, एक वही तो व्याकुल होता.

   _________

रचयिता डा. अंजु लता सिंह गहलौत, नई दिल्ली

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