कविता

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 25 Aug, 2019 | 1 min read

काहे ढूंढ रहे हो पत्थर में,

मैं शब्द शब्द माला बुन गया,

स्वाभिमान सी जी ने राह दी है,

गीता का सार तेरे हाथों में सौपं गया।


पाखंडों में उलझा बैठा है,

दिखावे की होड़ में लगा हुआ,

वाणी को मेरी तूने खो दिया,

कान्हा बना बना पूजा रहा है।


तू गांडीव धारी अर्जुन है,

तू कर्महीन क्यूं हताश रहा,

तेरे तीर में तेज नहीं है अब,

क्यों गर्जना से ये आसमान ना हिला।


द्रौपदी फिर से चीख रही,

चीर पर हाथ डला है फिर से,

नन्ही नन्ही जान सुरक्षित नहीं

दूध तक छूटा ना है जिनका।


दुर्योधन दुशासन बढ़ रहे हैं,

धृतराष्ट्र हुई है सत्ता, मौन,

जुआ, झूठ, छलावा, फरेब,

सब मयखाने,जाम बिखरे पड़े हैं।


छप्पन भोग दिखाता है तू मुझको,

मंदिर के आगे भूखे और नंगे पड़े हैं

आत्मीयता का अभाव हुआ है तुझ में,

सड़कों पर गरीब और बेबस तड़पे हैं।


मैं तो चक्कर धारी था,

अधर्म पर चक्कर उठे हैं,

कान्हा तो मैं कुछ पल के लिए ,

अवतार तो मेरा अधर्म के लिए हुआ था।


कब तक मुझको पुकारे गा तू?

कब कब तक में अवतरित हूंगा?

बार-बार कर्म हीन विमुख हुआ,

कब तक मैं तुझे जगाता रहूंगा?


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