श्रीराम-हनुमान मिलन

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 05 Oct, 2019 | 1 min read

श्रीराम-हनुमान मिलन

 


श्रीराम और लक्ष्मण मतंग ऋषि के आश्रम में पहुँचे। मतंग ऋषि कुछ समय पूर्व ही महासमाधि ले चुके थे। उनके बाद आश्रम की देखभाल शबरी नामक एक संन्यासिनी करती थी। शबरी का वास्तविक नाम ‘श्रवणा’ था और वह भील जाति की थी। चूँकि बाल्यकाल से ही उसका मन धर्म-कर्म में अधिक रमता था, इसलिए युवा होने पर वह घर-परिवार त्यागकर मतंग ऋषि के आश्रम में आकर रहने लगी। यहीं कठोर तप और सेवा द्वारा उसने योग से संबंधित दिव्य ज्ञान प्राप्त किया था।

 


शबरी को जब श्रीराम के आगमन का समाचार मिला तो प्रसन्नता की अधिकता से उसके नेत्र छलक आए। भगवान् के साक्षात् दर्शन की उसकी अभिलाषा पूर्ण हो गई। उसने श्रीराम की चरणधूलि माथे से लगाई और उन्हें प्रेमपूर्वक चख-चखकर मीठे बेर खिलाने लगी।

 

शबरी के इस निश्छल प्रेम को देखकर श्रीराम अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे ‘माता’ कहकर संबोधित किया। करुणानिधान के मुख से अपने लिए ‘माता’ शब्द सुनकर शबरी को लगा मानो उसके जन्म-जन्म के पाप नष्ट हो गए हैं। वह भाव-विभोर होकर बोली, ‘‘भगवन्! मतंग ऋषि ने महासमाधि से पूर्व कहा था कि एक दिन श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ इस आश्रम में आएँगे। तभी से मैं आपके आगमन की प्रतीक्षा कर रही थी। उनका वचन आज सत्य हो गया। प्रभु! अब जीवन के प्रति मुझे कोई मोह नहीं रहा। परंतु कबंध ने आपको जिस उद्देश्य से यहाँ भेजा है, वह मैं अवश्य पूर्ण करूँगी। भगवन्! यहाँ से कुछ दूरी पर ऋष्यमूक नाम का पर्वत है। उस पर वानरराज सुग्रीव वास करता है। आप उससे जाकर मिलें। सीताजी को ढूँढ़ने में वह आपकी हरसंभव सहायता करेगा।’’

 


तदनंतर शबरी ने योग-अग्नि द्वारा स्वयं को जलाकर भस्म कर लिया। शबरी के परामर्श के अनुसार राम-लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत की ओर चल पड़े।

 


सुग्रीव अपने बड़े भाई बालि के डर से छिपकर ऋष्यमूक पर्वत पर रहता था। उसके साथ पवनपुत्र हनुमान, जांबवंत आदि भी थे। उसने दो सुंदर धनुर्धारियों को पर्वत की ओर आते देखा तो सोचने लगा कि अवश्य बालि ने उसके वध के लिए उन वीरों को यहाँ भेजा है। वह भयभीत हो गया और उसी समय हनुमान को वास्तविकता का पता लगाने के लिए भेजा।

 


हनुमान छलाँगें लगाते हुए कुछ ही पलों में राम-लक्ष्मण के सम्मुख जा पहुँचे। उस समय उन्होंने ब्राह्मण का वेश बना लिया था। वे मधुर स्वर में बोले, ‘‘हे सुकुमारो! यद्यपि आपने गेरुए वत्र धारण कर रखे हैं, परंतु हाथों में सुशोभित धनुष आपके क्षत्रिय होने का प्रमाण दे रहे हैं। आप वास्तव में कौन हैं और किस उद्देश्य से वन में भमण कर रहे हैं?’’

 


तब लक्ष्मण ने श्रीराम का परिचय देते हुए सीता-हरण की घटना कह सुनाई।

 


अपने इष्टदेव को सामने देखकर हनुमान प्रसन्नता से भर उठे। उन्होंने तुंत ब्राह्मण वेश त्याग दिया और अपने वास्तविक रूप में आकर श्रीराम के चरणों में गिर पड़े। राम भी अपने प्रिय भक्त हनुमान को पहचान गए। उन्होंने स्नेहपूर्वक हनुमान को हृदय से लगा लिया। तत्पश्चात् हनुमान ने राम-लक्ष्मण को अपने कंधों पर बिठाया और छलाँगें भरते हुए सुग्रीव के पास लौट आए।

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