तप का बल

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 24 Sep, 2019 | 1 min read

तप का बल

 


यद्यपि रावण और उसके भाइयों का जन्म विश्रवा ऋषि के अंश से हुआ था, तथापि उनकी माता राक्षस-कुल की थी। अतएव उनमें धार्मिक प्रवृत्ति की अपेक्षा राक्षसी प्रवृत्ति का अंश अधिक था। माल्यवान् अपनी देख-रेख में उनका लालन-पालन कर रहा था। वह अपनी कुटिल बातों से बालकों का मन राक्षस-कुल की ओर खींच रहा था। देवताओं के अत्याचारों की अनेक मनगढ़ंत कहानियाँ सुना-सुनाकर उसने उनके बाल-मन में यह बात बैठा दी थी कि देवगण सदा से उनके शत्रु रहे हैं। उनका एकमात्र उद्देश्य राक्षस-कुल का सर्वनाश है। धीरे-धीरे रावण और कुंभकर्ण को यह विश्वास होने लगा कि वे राक्षस-कुल से संबंधित हैं और देवगण कभी भी उनका अहित कर सकते हैं।

 

एक दिन जब माल्यवान् अपनी पुत्री कैकसी और नातियों से मिलने आया तब सहसा रावण ने उससे पूछा, ‘‘नानाश्री! देवता सदा से हमारे कुल का विनाश करते आए हैं। उनके भय से ही आप पाताल लोक में निवास कर रहे हैं। क्या कोई ऐसा साधन नहीं है, जिसके द्वारा हम देवताओं को परास्त कर अपना सम्मान पुनः प्राप्त कर सकें? क्या हम देवताओं को कभी

पराजित नहीं कर सकते? क्या हमारा बल, हमारा शौर्य किसी काम का नहीं है?’’

 


‘‘रावण! हमारा बल और शौर्य देवताओं से कई गुना अधिक है। परंतु उनके पास दिव्य शक्तियाँ और अत्र हैं, जिनके द्वारा वे निर्बल होकर भी हमें परास्त करने की क्षमता रखते हैं। हाँ, यदि कोई राक्षस कठोर तपस्या द्वारा बह्माजी को प्रसन्न कर उनसे वर प्राप्त कर ले तो देवगण उसे पराजित नहीं कर सकते। परंतु इस समय हमारे कुल में कोई भी ऐसा तपस्वी राक्षस नहीं है जो कठोर तप कर सके।’’

 


‘‘ठीक है नानाश्री! मैं भी राक्षस-कुल का हूँ, इसलिए मैं स्वयं कठोर तपस्या करके बह्माजी को प्रसन्न करूँगा और उनसे वरदान में दिव्य शक्तियाँ प्राप्त करूँगा।’’

 


इस प्रकार प्रण करके रावण अपने भाइयों सहित वन में जाकर कठोर तपस्या करने लगा। विश्रवा को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने उसे बहुत समझाया, लेकिन सब व्यर्थ गया। रावण अपना हठ छोड़ने को तैयार नहीं हुआ। अंत में थक-हारकर विश्रवा आश्रम लौट आए।

 


माल्यवान् तप की महिमा को जानता था। उसने और उसके भाइयों ने तप द्वारा ही अनेक दिव्य शक्तियाँ प्राप्त की थीं। रावण को तप के लिए उद्यत देख उसे अत्यंत प्रसन्नता हुई। लंका पर पुनः शासन और देवताओं की पराजय उसे स्पष्ट दिखाई देने लगी। वह जान चुका था कि शीघ ही रावण को तीनों लोकों पर विजय के लिए एक विशाल दैत्य सेना की आवश्यकता होगी। रावण के तप में लीन होते ही उसने पृथ्वी के सभी दैत्यों को एकत्रित कर सेना बनानी आरंभ कर दी।

 


इधर रावण, कुंभकर्ण और विभीषण ने अपने कठोर तप से देवताओं को व्यथित कर डाला। उनके शरीर से निकलनेवाले तेज से तीनों लोक जलने लगे। उनके तप का तेज जब ब्रह्माजी के लिए असहनीय हो गया, तब वे साक्षात् प्रकट हुए और उन्हें इच्छित वर माँगने के लिए कहा।

 


रावण ने वर में अमरता माँग ली।

 


बह्माजी जानते थे कि यदि रावण अमर हो गया तो सृष्टि का विनाश हो जाएगा। अतः उसे समझाते हुए उन्होंने कहा, ‘‘वत्स, तुमने वर में ऐसी वस्तु माँग ली है, जो देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। कालचक्र के अनुसार सृष्टि में जन्म लेनेवाले प्रत्येक प्राणी को एक-न-एक दिन काल का गास बनना ही पड़ता है। इसलिए तुम अमरता के अतिरिक्त कुछ और माँग लो।’’

 


तब रावण ने बहुत सोच-विचारकर वर माँगा, ‘‘हे परमपिता! मुझे वर दीजिए कि मेरी मृत्यु मनुष्य के हाथों हो।’’

 


बह्माजी ने रावण को मनोवांछित वर दे दिया।

 


‘जब शक्तिशाली देवगण मेरा अहित नहीं कर पाएँगे तो भला कोई साधारण मनुष्य मेरा अंत कैसे कर सकेगा! आखिरकार मैंने बह्माजी से अमरता का वरदान प्राप्त कर ही लिया।’ यह सोचकर रावण मन-ही-मन प्रसन्न था।

 


कुंभकर्ण रावण से भी अधिक विशालकाय और शक्तिशाली था। उसे देखकर बह्माजी सोचने लगे कि यदि इसने भी रावण के समान कोई शक्तिशाली वर माँग लिया तो संपूर्ण मानवता का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। अतएव उन्होंने माया का सहारा लिया। उनकी इच्छा के अनुसार सरस्वती कुंभकर्ण की जिह्वा पर विराजमान हो गई। इसके फलस्वरूप बह्माजी ने जब कुंभकर्ण से वर माँगने के लिए कहा तो सरस्वती की माया से भमित होकर उसने वर में छह महीने की नींद और एक दिन की जागतावस्था माँग ली। बह्माजी ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे वरदान दे दिया।

 


तदनंतर वे विभीषण के पास पहुँचे और उससे इच्छित वर माँगने के लिए कहा।

 


रावण और कुंभकर्ण की अपेक्षा विभीषण धर्म की ओर अधिक प्रवृत्त था। परोपकार, दया और सहिष्णुता उसके गुणों को और भी प्रकाशित करते थे। श्रीविष्णु में उसकी अगाध श्रद्धा थी, इसलिए उसने वर में भगवान् विष्णु की अनन्य भक्ति और उनके दर्शन की इच्छा प्रकट की।

 


बह्माजी उसे वर देते हुए बोले, ‘‘हे विभीषण! तुम्हारे भाइयों ने कठोर तप के बाद भी केवल सांसारिक वस्तुओं को ही माँगा, लेकिन तप का वास्तविक फल तुम ही जानते हो। मैं तुम्हें श्रीविष्णु की अनन्य भक्ति प्रदान करता हूँ। इस जन्म में तुम्हें भगवान् विष्णु के दर्शन के साथ उनका सान्निध्य प्राप्त करने का सौभाग्य प्राप्त होगा।’’

 


इस प्रकार तीनों भाइयों को मनोवांछित वर प्रदान करके बह्माजी अंतर्ध्यान हो गए।


धन्यवाद! ये कहानी पढ़ने के लिए, हम आगे भी ऐसी ऐतिहासिक कहानियाँ प्रस्तुत करते रहेंगे।

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