गरुड़-पुत्र संपाति

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 05 Oct, 2019 | 1 min read

गरुड़-पुत्र संपाति

 


राज्य पाकर सुग्रीव भोग-विलास में डूब गया। जब कई महीने बीत गए तब लक्ष्मण को सुग्रीव के पास भेजा गया। वे क्रोध से भरे हुए सुग्रीव के पास पहुँचे और मेघ के समान गर्जन करते हुए बोले, ‘‘सुग्रीव! सुरा-सुंदरी में डूबकर तुम अपना वचन भूल गए हो। मुझे श्रीराम ने वह वचन याद दिलाने के लिए यहाँ भेजा है, जो तुमने किष्किंधा के सिंहासन पर बैठते समय दिया था। परंतु लगता है, तुम्हें भी तुम्हारे भाई बालि के पास भेजना पड़ेगा।’’ यह कहकर लक्ष्मण धनुष पर बाण चढ़ाने को उद्यत हो गए।

 


लक्ष्मण का रौद्र रूप देखकर सुग्रीव भयभीत हो गया। वह उसी समय हनुमान, जांबवंत इत्यादि मंत्रियों को साथ लेकर भगवान् श्रीराम की शरण में पहुँचा और उनसे क्षमा माँगने लगा। भक्त-वत्सल भगवान् श्रीराम ने उसे गले से लगा लिया। तदनंतर सुग्रीव ने सभी प्रमुख वानरों को एकत्रित कर चार दलों में बाँट दिया और प्रत्येक दल को सीता की खोज के लिए अलग-अलग दिशा में भेज दिया। दक्षिण दिशा की ओर जानेवाले दल में हनुमान, जांबवंत, नल, नील, अंगद आदि वानर-वीर शामिल थे। सीता को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते हनुमान आदि वानर-वीर दक्षिण समुद्र के तट पर जा पहुँचे। सुग्रीव ने सीताजी की खोज के लिए जितने दिन निर्धारित किए थे, वे समाप्त हो चुके थे। सभी वानर भूखे-प्यासे तट पर बैठकर लहराते समुद्र को देखने लगे।

 


निकट ही एक गुफा थी, जिसमें संपाति नामक एक वृद्ध गिद्ध रहता था। संपाति, जटायु का बड़ा भाई और भगवान् विष्णु के वाहन गरुड़ का ज्येष्ठ पुत्र था।

 


एक बार संपाति और जटायु में सूर्य को पकड़ने की होड़ लग गई। वे दोनों एक साथ सूर्यदेव को पकड़ने के लिए उड़ चले। परंतु जब वे निकट पहुँचे तो सूर्य के तेज से उनके पंख जलने लगे। जटायु मार्ग से ही लौट आया, लेकिन संपाति अधिक आगे जा चुका था। इसके फलस्वरूप उसके सारे पंख जल गए। तब से वह पंखविहीन होकर इस गुफा में अपने दिन व्यतीत कर रहा था। वानरों के दल को देखकर उसकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। उसने सोचा-ईश्वर ने उसके लिए कई दिनों का भोजन एक साथ भेज दिया है।

 


वह वानरों का वार्त्तालाप सुनने लगा।

 


एक वानर कह रहा था, ‘‘हमसे अधिक श्रेष्ठ तो गिद्धराज जटायु थे, जिन्होंने श्रीराम के कार्य हेतु अपने प्राण न्योछावर कर दिए। हम भाग्यहीन सीताजी का पता भी न लगा सके। काश, हमें भी जटायु के समान श्रीराम के लिए प्राण देने का अवसर मिलता!’’

 


जटायु का नाम सुनकर संपाति विस्मित रह गया। उसने वानरों को निकट बुलाया और अपना परिचय देकर जटायु के बारे में पूछा।

 


हनुमान बोले, ‘‘हे गिद्धराज! आपके भाई जटायु परम वीर और पराक्रमी थे। उन्होंने सीता माता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। श्रीरामभक्तों में वे सदैव पूजनीय रहेंगे। मृत्यु से पूर्व उन्होंने बताया था कि दुष्ट रावण सीताजी को लेकर दक्षिण दिशा की ओर गया है। परंतु हमने संपूर्ण दक्षिण क्षेत्र छान मारा, किंतु सीताजी का कहीं पता नहीं चला। हे पक्षिराज! यदि आप इस विषय में कुछ जानते हैं तो कृपया हमारा मार्गदर्शन करें।’’

 


प्रिय अनुज जटायु की मृत्यु का समाचार सुनकर संपाति की आँखों में आँसू भर आए; फिर वह स्वयं को सँभालते हुए बोला, ‘‘हे वानरो! राक्षसराज रावण समुद्र के बीच में स्थित लंका नामक नगरी में रहता है। कुछ दिन पूर्व मैंने उसे एक सुंदर त्री का हरण कर लंका की ओर जाते हुए देखा था। अवश्य वह सीता ही थीं। यदि तुम में कोई समुद्र पार कर सकता हो तो उसे सीताजी का पता अवश्य मिल जाएगा।’’

 


संपाति की बात सुनकर वानरों में हर्ष की लहर दौड़ गई। आखिरकार उन्हें सीताजी का पता मिल गया था। उन्होंने संपाति को धन्यवाद दिया और समुद्र पार करने की योजना बनाने लगे।

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