श्रीराम को वनवास

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Aman G Mishra
Aman G Mishra 28 Sep, 2019 | 1 min read

श्रीराम को वनवास

 


राजा दशरथ वृद्ध हो चले थे; राज्य का कार्यभार सँभालना कठिन होता जा रहा था। ऐसी स्थिति में एक दिन उन्होंने मंत्री सुंत्र को बुलाया और अपने हृदय की बात बताते हुए बोले, ‘‘सुंत्र! अनेक दिनों से मेरे मन में एक बात उठ रही है। मैं चाहता हूँ कि राम का राज्याभिषेक करके उसके कंधों पर राज्य के कार्यभार का दायित्व डाल दूँ और मैं शेष जीवन ईश्वर-भक्ति में लगाकर अपना परलोक सुधार लूँ।’’

 


महाराज दशरथ की बात सुनकर सुंत्र प्रसन्न होकर बोले, ‘‘महाराज! आपका विचार अत्यंत उत्तम है। प्रजा भी श्रीराम को भावी राजा के रूप में देखती है। श्रीराम उनके लिए एक योग्य राजा सिद्ध होंगे। इस शुभ कार्य में तनिक भी विलंब मत कीजिए। अयोध्या के लिए इससे अधिक प्रसन्नता की बात और क्या होगी! संपूर्ण मंत्रिमंडल और स्वयं कुलगुरु वसिष्ठ भी आपके इस निर्णय से सहमत होंगे।’’

 

सुंत्र का समर्थन और प्रजा की इच्छा जानकर राजा दशरथ ने अगले ही दिन राम के राज्याभिषेक की घोषणा कर दी। राम के राजा बनने की बात सुनकर प्रजा में खुशी की लहर दौड़ गई। महल में उत्सव मनाए जाने लगे। कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी राम के राज्याभिषेक की तैयारियों में जुट गई।

 


जहाँ संपूर्ण अयोध्या में उत्सव की तैयारियाँ चल रही थीं, वहीं यह समाचार सुनकर मंथरा नामक एक दासी सीधे कैकेयी के पास जाकर विलाप करने लगी। वह कैकेयी की मुँहलगी दासी थी। कैकेयी ने उससे विलाप का कारण पूछा।

 


मंथरा कटु स्वर में बोली, ‘‘रानी! मेरी आँखें आनेवाले दुर्दिनों को देख रही हैं, मैं इसलिए आँसू बहा रही हूँ। वह दिन दूर नहीं जब तुम स्वयं एक दासी की भाँति महल के एक कोने में बैठकर आँसू बहाती नजर आओगी। राम के राजा बनते ही तुम्हारा संपूर्ण वैभव और प्रभुत्व कौशल्या द्वारा धूमिल हो जाएगा। अभी भी समय है, सँभल जाओ अन्यथा कुछ शेष नहीं बचेगा।’’

 


‘‘नहीं, नहीं। ऐसा कदापि नहीं होगा। मेरा राम मुझे बहुत प्रेम करता है। तुम व्यर्थ में ही राम पर दोषारोपण कर रही हो। उसने कौशल्या और मुझमें कभी कोई अंतर नहीं समझा। भरत को तो वह अपने से भी अधिक प्रेम करता है। तुम विष-वमन करके मुझे भमित मत करो।’’ कैकेयी ने कठोरता के साथ प्रतिरोध किया।

 


मंथरा पुनः विलाप करते हुए बोली, ‘‘रानी! तुम्हारी तो मति मारी गई है। जिस कौशल्या को तुमने अनेक बार नीचा दिखाया है, क्या वह तुम्हें इसी प्रकार छोड़ देगी? नहीं, तुम देखना, राम के राजा बनते ही वह तुमसे गिन-गिनकर बदला लेगी। कौशल्या के कहने पर ही राजा दशरथ राम का राज्याभिषेक उस समय कर रहे हैं, जब भरत और शत्रुघ्न अपने ननिहाल गए हुए हैं।’’

 


आखिरकार मंथरा के बार-बार कहने पर कैकेयी का मन विचलित हो गया। वह भयभीत होकर बोली, ‘‘मंथरा, तुम ठीक कहती हो। परंतु अब क्या हो सकता है? कल राम का राज्याभिषेक हो जाएगा। मुझे इससे निपटने का कोई मार्ग नहीं सूझ रहा। अब तुम ही कोई उपाय बताओ?’’

 


तब मंथरा ने कैकेयी को उन दो वचनों की याद दिलाई, जो देवासुर संग्राम में दशरथ ने कैकेयी को दिए थे। उस समय कैकेयी ने वे दो वचन भविष्य के लिए रख लिये थे। मंथरा द्वारा याद दिलवाए जाने के बाद कैकेयी ने राजा दशरथ से दोनों वचन माँग लिये। पहले वचन में उसने भरत के लिए अयोध्या का राजसिंहासन माँगा और दूसरे वचन में राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास। वचन में बँधे राजा दशरथ को कैकेयी की दोनों इच्छाएँ पूरी करनी पड़ीं। पिता की इच्छा पूर्ण करने के लिए श्रीराम ने चौदह वर्ष का वनवास सहर्ष स्वीकार कर लिया। सीता और लक्ष्मण ने भी श्रीराम का अनुसरण किया।

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