फिर जो बादल बरसे

का बरखा जब कृषि सुखाने

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 20 Jul, 2020 | 1 min read
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"का बरखा जब कृषि सुखाने"

खटिया से उठ कर रामाधीन खांसने लगा था। पत्नी सुकुमारी दौड़ कर लोटे में पानी दे गई। रामाधीन की काया भी उनकी माली हालत जैसे पतली हो चली थी। कभी ऐसा शरीर था कि बैलों के बजाय हल खुद ही जोत लेता था। पैरों में चप्पल डाल धीरे धीरे घर से बाहर जाने के लिए कदम बढ़ाने लगा।

" बापू! कहा जा रहे हो, खाना खा लो पहले .. वैसे भी धूप बहुत तेज है..गर्मी लग जाएगी, अम्मा! तुम समझाती काहे नहीं हो?"

बड़ी बिटिया राधा चूल्हे में और लकड़ियां डालती हुई बोली।

रामाधीन ने एक नजर बिटिया पर डाली। गरीबी और तंगी ने उसे उम्र से पहले ही सयाना बना दिया था। ना तो उसकी पढ़ाई पूरी करवा पाया और ना ही अब शादी का जुगाड़ कर पा रहा था ।यही अफसोस अंदर ही अंदर खाए जा रहा था।

" बबलू जा साथ हो ले बापू के.. ये तो मानने वाले नहीं हैं। जाने रोज इनके जाने से बरसात हो जाएगी क्या? सबके खेत सूखे है, ये अकेले जाने कौन सी अग्नि में जले जा रहे है " सुकुमारी की बाते अब रामाधीन को कम चुभती थी। सुकून था कि शिकायत तो करती है। कहते है जहां शिकायतें होती है समझो वहाँ उम्मीद अभी बाकी है। रामाधीन कैसे बताये सुकुमारी को की भले सूखा सबके खेत पर कब्जा किए हुए है पर बंजर रामाधीन का हृदय हो चला था। जब वो छोटा था तो अपने बाबुजी के साथ दिन भर खेतों में लोटे रहता। पकी धान की बालियां तोड़ लाता और उन्हें भून कर खाता था। बाबूजी बालियों को बच्चे जैसे सहलाते थे। रामाधीन की माँ उसे बहुत छुटपन में छोड़ गई थी। जवानी की दहलीज पर आते ही बाबूजी दूसरे लोक जाने को तैयार खड़े थे। वो जब जाने लगे थे तो रामाधीन को बुला कर कहा था कि मैं तुम्हें जो जमीन देकर जा रहा हूं उसे ही अपनी माँ समझना। हमेशा ख्याल रखना उसका। रामाधीन ने वही किया भी। शरीर को शरीर ना समझा कभी खूब मेहनत की और जमीन को सोना उपजाने पर मजबूर भी किया। खाली समय में रामाधीन खेतों में बैठ कर धान की बालियों को निहारता और उनसे बात भी करता था। सुकुमारी मज़ाक मज़ाक में खेतों की ओर चिल्ला कर कहती भी थी " अरी ओ सासु माँ sss.. अपने बिटवा से कहो जरा पत्नी को भी समय दे दे "। दोनों खूब हँसते थे फिर। राधा और बबलू के आने के बाद सुकुमारी अब गृहस्थी में ज्यादा व्यस्त रहती थी।

समय के साथ मौसम की मार भी बढ़ते चली थी। कभी बे मौसम बारिश हो जाती तो कभी खड़ी फसल पानी के इंतज़ार में सूख जाती थी।उसने बैंकों से कर्ज लेकर भी कई बार सिंचाई की थी, कई बार सुकुमारी के गहने भी बेचने पड़े थे। सुकुमारी खिसिया जाती थी कि जितने का बाबू नहीं उससे मंहगा झुनझुना हो जा रहा है। उपज हो नहीं रही और तुम हो कि डाले जा रहे हो सारी संपति खेतों में। इससे अच्छा शहर जाकर कुछ मजदूरी कर लेंगे। पर रामाधीन कहाँ मानने वाला था। उसके लिए वह को खेत का टुकड़ा होता तो कोई बात होती.. उसके लिए तो वह उसकी माँ है। बीमार माँ की सेवा में सर्वस्व झोंकने का दम हर सन्तान रखती है।

रामाधीन के खेत सड़क से लगे हुए थे। फिर एक दिन खबर आई कि वहाँ पास से ही राजमार्ग निकलने वाला है। अब सरकारी लोगों की साठ गांठ से कुछ निजी कंपनियों की नजर किसान के खेतों पर थी। वो चाहते थे कि वहाँ होटल और बिल्डिंग बनाई जाए ताकि अच्छी कमाई हो सके। मौसमी मार से त्रस्त कई किसानो ने ये सौदा मंजूर भी कर लिया था। रामाधीन को लगता था कि जानबूझ कर सरकार सिंचाई के लिए कोई मदद उपलब्ध नहीं करा रही है ताकि मजबूरन खेतों को उनके हवाले करना पड़े। वह एक अच्छी कीमत भी देने को तैयार थे पर रामाधीन सुनते ही तमतमा गया था। माँ का सौदा कोई कैसे कर सकता है भला?

आज खेतों की ओर बढ़ते रामाधीन को मन में सिर्फ राधा का ख्याल आ रहा था। कहीं मैं स्वार्थी तो नहीं हो गया हूँ? बिटिया का ब्याह अगर अच्छे से नहीं किया तो भले ही एक अच्छा पुत्र कहलायेगा पर एक अच्छा पिता नहीं। रामाधीन ने आंख उठा कर खेतों को देखा। माँ की छाती सूखी हो कर बंजर हो चली थी जैसे रो रही हो कि मेरे बेटे तुम्हें देने को अब मेरे पास कुछ भी नहीं है। रामाधीन वही धम्म से बैठ गया। आँखों से आंसू की धार बह चली थी। काश कि अपने आंसुओ से ही धरती को सींच पाता। 


"क्यूँ रो रहे हो?.. इतना दुःख भला किस बात का?"


"रोऊँ नहीं तो क्या करूं?.. कभी सोचा ना था माँ, की परिवार के भूख को शांत करने के लिए तुम्हें ही कुर्बान कर दूँगा"


"तो माँ का क्या कर्तव्य है बताओ? त्याग और समर्पण का दूसरा नाम ही माँ है ना..दुःख तो इस बात का है की अब मैं अपने परिवार का भरण नहीं कर पा रहीं हूं, वर्ना आज यह नौबत ही नही आती।"


" फिर भी कितने सलोने स्वप्न सजाये मैंने, धूप में झुलसकर मेघ की बाट देखता रहा.. पर ये मेघ भी देखो कितने निष्ठुर हो गए हैं, और सरकारें शून्य हो गई हैं.. कर्ज पर कर्ज चढ़ा हुआ है.. निराश हो मैं मृत्यु को भी स्वीकार लूँ पर उससे भी तो परिवार का पेट ना भर पाएगा ना.. मैं मजबूर हूं ,वर्ना माँ का सौदा कौन करता भला?"


"देखो तुम किसान हो, अन्नदाता हो अगर ये बात इन्हें नहीं समझ आ रही है तो तुम आंसू क्यूँ बहाते हो? मैं मां भी तो तुमसे ही कहलाती थी, मेरी छाती पर अगर ये लोग कंक्रीट के जंगल बना कर तुम्हारे परिवार की भूख शांत करते हैं तो सोचो मत! अब ये सोचे की इनके परिवार का पेट कौन भरेगा? चलो देखते हैं कब तक शून्य बैठती है बाकी की दुनिया अन्नदाता से उसकी कर्मभूमि छिन कर।"


 रामाधीन उठ कर अपनी मां को प्रणाम कर चल दिया , अभी काग़ज़ी कारवाई करनी बाकी जो थी। फिर रामाधीन ने माँ का सौदा कर दिया। बबलू बहुत खुश था। आज घर में पैसे आए थे। बहुत अच्छे अच्छे पकवान भी बन रहे थे। सुकुमारी भी आज श्रृंगार कर नई नवेली से कम नहीं चमक रही थी। राधा का रिश्ता होने वाला था। राधा भी खुश थी। सुकुमारी ने सारे पकवान थाली में सजा कर बबलू से कहा " जा पहले बापू को बुला ला.. बहुत दिन हुए अच्छे से साथ खाना नहीं खाया।"

बबलू जितनी तेजी से गया उतनी ही तेजी से वापस आया

" अम्मा! बापू हिलते डुलते नहीं है जरा देखो तो "

पकवान की थाली मिट्टी को सुपुर्द कर सुकुमारी बदहवास हो कर दौड़ी। रामाधीन जा चुका था। माँ का विरह उसे सहन नहीं हुआ। जब कोई तुमसे इतनी बुरी तरह से जुड़ी हो कि तुम्हारा अपना हिस्सा बन जाए तो उसका तुमसे जुदा होना तुमको भी खत्म कर देता है। उस दिन जाने कहां से बादल चले आए। सुकुमारी चीख चीख कर रो रही थी और पागलों की तरह बादलों को भागने के लिए कह रही थी।

" अब क्या देखने आये हो "

बादल खूब बरसे। जैसे डूबा देंगे सुकुमारी की आंसुओ की धार में पूरी दुनिया, वैसे बरसे। हाँ पहले बरसे होते तो रामाधीन की माँ शायद बच जाती। पर अब खाट पर पड़ा रामाधीन का निर्जीव शरीर इस चिर प्रतीक्षित बारिश को देख कर बिलकुल भी नहीं हिला। का बरसा जब कृषि सुखाने? अरे नहीं ये बादल नहीं रामाधीन के आंसू थे।

©सुषमा तिवारी

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