भोर की आस

आशा निराशा की जननी

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Sushma Tiwari
Sushma Tiwari 08 Feb, 2020 | 0 mins read

लो माटी से लीप दिए हम चूल्हा

भोर भी उजली सुनहरी हो आई

बैठक में खटिया पर शान से बैठे

बबुआ के बाबा ने आवाज़ लगाई

भोर की लाली दुपहरी को चली

अरे मलकिनी! चाय तो पिलाओ

दिन भर तो करोगी ही काम तुम

सुबह सुबह तो साथ बैठ ही जाओ

चाय का ग्लास लाकर उन्हें थमाया

और मचिया पटक गए बैठ हम भी

अब मुझसे ना होता इतना काम सब

करना होता है सुबह पूजा धरम भी

सुनो मलकिनी जानता हूं ये सब मैं

शरीर साथ नहीं तुम्हारी उम्र हो चली

वो भी ज़माने थे नीचे से दुछत्ती तक

दिन भर उड़ती थी तुम बनके तितली

शहर से आने वाला है बबुआ तुम्हारा

बबुआ से अबकी तुम करना मनुहार

बस कुछ बरसों का अब साथ हमारा

साथ ले जाए हमे बबुआ अबकी बार

वो ऊंची चारपाई वो छोटा गुसलखाना

वो बंद कमरे, सारी तकलीफ हमे मंजूर है

जीते जी यूँ अब रोज मरते क्यूँ जाना

अपने कलेजे के टुकड़ों से जो हम दूर है

आस की टोकरी सर से अब उतार दें

ये कैसे बबुआ के बाबा को समझाऊँ

बबुआ नहीं आएगा कल बता चुका है

समझा दिया फोन पर इन्हें कैसे बताऊँ

ए जी सुनो! हमे ना जाना शहर वहर

हमे ना सोहे ऊंची कड़क चारपाई

देखो जी आँगन की खुली हवा में

हम तो सोते हैं मस्त खटिया बिछाई

थोड़ा सा तुम भी तो सबर कर लो

उम्र के साथ बढ़ती ये चाय की प्यास

समय के साथ खुद को भी बदल लो

ना लगाओ हर रोज ये भोर की आस

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