गुनाह-ए-इश्क़

हिन्दी-उर्दू ग़ज़ल

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Manu jain
Manu jain 28 Mar, 2020 | 1 min read

लगता है फिर से दिल , लगाने की वकालत हो रही है

यु ही नहीं मेरे दिल में भी सियासत हो रही है

महफिलों से रिश्ता मेरा , अब नाजायज़ हो रहा है

तेरी तन्हाईयों से कुछ इस तरह , रफ़ाक़त हो रही है

तुम्हारी आंखों का वो , डर मुझे सुकून दे रहा है

जब छोड़ जायेंगे कहके , तेरे दिल में क़यामत हो रही है

तुम्हें जीतना है मगर , तुमसे जीता नहीं जा रहा है

तुमसे लड़ाई में हारकर , दिल को फिर से चाहत हो रही है

दिल की धड़कन जपती रहती है , नाम तुम्हारा

रब की गैर-मौजूदगी में , तुम्हारी इबादत हो रही है

तुम करते हो शरारत और , मुस्कुरा हम देते हैं

तेरी नादानियां बिसराते हुए तुमसे मोहब्बत हो रही है

डर किसी अंजाम का , अब बेअसर हो रहा है

दिमाग़ की दिल से , यूं बगावत हो रही है

यूं जिन्दगी खुशगवार है , तेरे एहसासों के साथ

कि हवा भी सांस बन जाए , वो रूहानियत हो रही है

ना देखा करो मुझे तुम , निगाहों में मोहब्बत भरके

मेरे लब तो खामोश है ‌मगर , दिल में क़यामत हो रही है

अब दिन-रात ,नींद-चैन ,सब तुम्हारे ही नाम है

मेरी सांसों से ज्यादा , तेरे ख्वाबों की हिफाज़त हो रही है

तुम्हें पाने की जुस्तजू में , भुला बैठे हैं सबकुछ ही

कि अब हमारी ही किस्मत की हमसे अदावत हो रही है

रफ़ाक़त-: दोस्ती

अदावत-: दुश्मनी

बिसरा-: भुला

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Manu jain

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