पिता को समर्पित(Day-01)

पिता का त्याग कम लिखा जाता है सो पिता का त्याग कम शब्दों में ही सही व्यक्त करने की तुच्छ कोशिश।

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Kumar Sandeep
Kumar Sandeep 08 Feb, 2022 | 1 min read
Valentine's day special Father's love Sacrifice of father Love for Father

आज से आगामी सात दिन तक मैं उन दो शख्सियतों के विषय में आप सबों को रूबरू करवाउंगा जिनकी एहमियत हम सभी के जीवन में बेहद ही ख़ास है। प्रथम चार दिन प्राणदाता पिता के संदर्भ में व आगामी तीन दिन जीवनदायिनी माँ के संदर्भ में। ये दो शख्सियतें मेरे जीवन में अहम हैं। इनके बिना मैं ख़ुद को शून्य समझता हूँ। प्रथम चार दिन पिता के संदर्भ में इसीलिए चूँकि मेरा यह मानना है कि माँ और पिता दोनों ही बराबर-बराबर हमारी बेहतर ज़िंदगी को निर्मित करते हैं पर कहीं न कहीं पिता का त्याग कम लिखा या कहा जाता है माँ का अधिक, इसीलिए प्रथम चार दिन पिता को समर्पित.......


Day-01


मेरे पिता कैसे थे? कितने अच्छे थे? मैं परिवार में सबसे छोटा हूँ, मुझे कितना चाहते थे? इन सबके के संदर्भ में विस्तृत लिख पाऊं इसलिए ईश्वर ने मुझसे यह हक़ छीन ही लिया वह भी तब जब मैं उम्र के चौदहवें पड़ाव में था। मेरी मैट्रिकुलेशन की परीक्षा भी नहीं हुई थी तब। पर जितने दिन भी पिता मेरी आँखों के सामने रहे मैंने उनको जीतना समझा जितना जाना उससे यह अवश्य कह सकता हूँ कि मेरे पिता त्याग की अद्वितीय मूरत थे। 


ब्रह्माण कुल से नाता है, सो पिता यजमान के यहाँ पूजा पाठ कराने का भी कार्य करते थे, पूजा पाठ का कार्य हर दिन नहीं होता था सो पिता गाँव के बच्चों को होम ट्यूशन भी पढ़ाते थे। बाल्यावस्था पढ़ने की उम्र होती है परंतु गरीबी जब तन पर जीवन पर प्रहार करती है तब बाल्यवस्था में ही काम का हाथ थामना पड़ता है। कुछ यूं ही हुआ पिता के साथ भी। पिता जब जीवन से अधिक दुखी होते थे, मुझे व मेरे दोनों भाईयों को अपने पास बुलाकर समझाते थे। जब वह अपनी अतीत की यादों के कुछ पन्ने हमारे समक्ष उलटते थे, तो मैं उस वक्त कुछ पल के लिए दुखी तो ज़रूर हो जाता था, पर कुछ पल में सामान्य हो जाता था व उस वक्त पिता की आँखों से अश्रु गिरते देखता था। पिता का दर्द उस वक्त मैं महसूस भलीभाँति करने में असमर्थ था चूंकि मैं महज उस वक्त आठ या नौ बरस का था। 



पिता को पारिवारिक ज़िम्मेदारी बाल्यावस्था में उठाने की ज़िम्मेदारी आ गई थी सो पिता महज 50 रुपये,75 रुपये प्रति विद्यार्थी पढ़ाते थे। ऐसा पापा कहते थे, परंतु वह किस तरह इस स्थिति में ख़ुद को परिवार को संभालते थे यह सोचकर आज सिहर जाता हूँ। मैं भी आज इस परिस्थिति को जब झेल रहा हूँ गाँव में बच्चों को पढ़ाकर तो मन बार-बार इस बात को लेकर रोता है कि सचमुच पिता ने हमारे लिए कितना कुछ किया, पर जब हमारी बारी आई पिता के लिए करने की तो पिता नहीं रहे। 


क्रमशः.....


निष्कर्ष:- अपने पिता के संदर्भ में इस बात को बता कर मैं आप सबों से एक बात कहना चाहूंगा यदि आपके पिता निर्धन हैं, गरीबी का दंश स्वयं के तन पर सहन कर रहे हैं तो उनकी परिस्थिति को समझें। उनके त्याग को कमतर मत आँकें। पिता जब नज़रों के सामने हों तो उनसे बेइंतहा मुहब्बत करें, न जाने कौन-सा पल आपके लिए या पिता के लिए आखिरी हो। रब जितने दिन की ज़िंदगी देते हैं उसे जीभर जीएं। अपनों के बीच अपनापन खत्म न करें। आज की युवा पीढ़ी पिता से कम बातचीत करना बुद्धिमानी का काम समझती है पर मैं मानता हूँ कि यह सही नहीं है। पिता की कड़वी बात बेशक तीखी हो पर वह हमारे लिए भविष्य में फायदेमंद सिद्ध होती है।


धन्यवाद!



©कुमार संदीप

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